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जाट कौम में गोत्र विवाद – जायज या नाजायज?

जाट कौम में गोत्र विवाद

जाट कौम में गोत्र विवाद – जायज या नाजायज?

भारत वर्ष की विशेष पहचान सांस्कृतिक विभिन्नता से है । देश के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न समाज हैं जिनकी सामाजिक परम्परायें और संस्कृतियों में पूर्ण विभिन्नता है।

उदाहरण के लिए दक्षिण के राज्यों में विशेषकर तमिलनाडू के हिन्दू समाज में अपनी बहिन, भुआ (बुआ) व मामे की लड़की/लड़के से विवाह करना उत्तम सम्बन्ध माना जाता है।

इसी प्रकार पाकिस्तान से विभाजन के बाद भारत हिन्दू मुख्यत: अरोड़ा खत्री जातियों मामा, बुआ के बच्चों शादी उत्तम मानी गयी हैं, जबकि उत्तर भारत की स्थानीय जातियों (जाट, अहीर, गुज्जर, राजपूत, मीणा, दलित आदि) में इनको भाई-बहन का दर्जा प्राप्त है ।

उत्तर पूर्वी राज्यों में सम्पत्ति की मालिक स्त्री है तो मेघालय में दूल्हे की बजाए दुल्हन बारात लेकर आती है । इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं लेकिन इसका मुख्य कारण दक्षिण व उत्तर-पूर्व की समाज मातृ-प्रधान संस्कृतियां हैं तो उत्तर भारत पितृ-प्रधान संस्कृति है।

इसी का प्रमाण है कि दक्षिण भारतीय कोई भी कर्मचारी अपने परिवार को साथ रखने के समय अपनी मां की बजाए अपनी सास को साथ रखता है । इसी प्रकार हिन्दू धर्म में भी अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग मान्यताएं हैं जो एक-दूसरे के विपरीत हैं।

हमें तो एक दूसरे की संस्कृतियां बहुत ही हैरान करने वाली लगती हैं लेकिन सभी को अपनी-अपनी संस्कृतियां प्रिय व सम्मानीय हैं । इसलिए भारतीय संविधान ने सभी को सुरक्षा का भरोसा दिलाया है।

जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण

Gotra dispute in Jat community
सच्चाई जाट कौम में गोत्र विवाद

जाट कौम में गोत्र विवाद – जायज या नाजायज?

जाट कौम मुख्य तौर पर उत्तर भारत में रहती है । इसकी मूल सभ्यता, संस्कृति व पहचान चार बातों पर टिकी रही है – पंचायत, गौत्र, गांव और जमीन (कृषि)। इसे कृषि सभ्यता भी कहा जाता है।

यही जाट कौम की पहचान है। संक्षेप में इतना ही कहना काफी होगा कि पंचायत प्रणाली मूल रूप से जाट कौम की उपज है और इसी पंचायत प्रणाली से आज के प्रजातन्त्र का विकास हुआ ।

इस सच्चाई के ठोस प्रमाण हैं । इसी पंचायत से खाप पंचायत का विकास हुआ । एक गौत्र के समूह के गांवों ने अपनी खाप पंचायत बनाई तो कम संख्या के गौत्र गांवों ने मिलकर अपनी खाप पंचायतें बनाई।

एक खाप में चाहे कितने ही गौत्र हों उनका भाईचारा स्थाई होता है और उनके बच्चों का दर्जा आपसी सगे भाई बहन का होता है। यही जाट सभ्यता की एक बड़ी महानता है।

उदाहरण के लिए हरयाणा में सांगवान खाप के 40 गांवों के कितलाना गांव में सांगवान गौत्र के कुल 80-85 परिवार हैं जबकि धायल और मलिक व कुछ अन्य गौत्रों के 400 परिवार हैं|

लेकिन कोई भी सांगवान जाट धायल व मालिक आदि जो इस गोत्र में हैं, इन गौत्रों की लड़की ब्याह कर नहीं ला सकता है, इसी प्रकार ये गौत्र-भाई सांगवान गौत्र की नहीं। इसी को जाट समाज में भाईचारा कहते हैं और मानते हैं।

जाट कौम में गोत्र विवाद – जायज या नाजायज?

इन खापों को इकट्ठा करके जाट सम्राट हर्षवर्धन बैंस ने सन् 643 में सर्वखाप पंचायत का निर्माण किया। सर्वखाप क्षेत्र में रहने वाली दूसरी जातियां भी अपनी सुरक्षा हेतु इसमें सम्मिलित हो गईं जिसे आज सर्वजातीय खाप पंचायत भी कहने लगे।

सर्वखाप पंचायत का मुख्यालय आरम्भ से ही उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के गांव सौरम में रहा है जहां इसका पर्याप्त इतिहास उपलब्ध है और इस मुख्यालय में बाबर व अकबर सरीखे बादशाह भी नतमस्तक हो चुके हैं।

इस इतिहास पर कई पुस्तकें और शोध हो चुके हैं । सर्वखाप पंचायत की अपनी सेना थी और खुले न्यायालय थे । सन् 643 से सन् 1857 तक उत्तर भारत में कोई भी ऐसा युद्ध नहीं हुआ जिसमें सर्वखाप की पंचायती सेना ने भाग न लिया हो।

इसी कारण सन् 1857 के बाद अंग्रेजों ने इस शक्ति को देखते हुए इस पर पाबन्दी लगाई जो सन् 1947 तक लागू रही। इस पंचायत के फैसले न्याय की कसौटी पर खरे होते थे । इस बात के भी प्रमाण उपलब्ध हैं अपने फैसले करवाने के लिए राजा और नवाब तक इन्हें बुलाते थे।

सर्वखाप पंचायत का संविधान अलिखित और परम्पराओं पर आधारित है जैसे कि 300 सालों से इंग्लैण्ड का संविधान चला आ रहा है।

धनखड़ जाट गोत्र 

सर्वखाप पंचायत
जाट कौम में गोत्र विवाद

राजस्थान की खापों का अन्त राजपूत राज आने पर हुआ । पंजाब में सिख धर्म आने पर इनका स्थान जत्थों और मोर्चों ने ले लिया जिसका असर फतेहाबाद और कुरुक्षेत्र तक पड़ा फिर भी आज लगभग 600 खापों का वर्चस्व कायम है।

हिसार क्षेत्र के गांव 17वीं व 18वीं सदी में राजस्थान से आकर बसे जिनमें एक गोत्र नहीं, इसलिए खाप नहीं बन पाई, हालांकि जाटों के कुछ क्षेत्रों में आज खाप पंचायतें नहीं रही लेकिन जाटों की गौत्र प्रथा ज्यों की त्यों कायम है।

यही जाट कौम की पहचान और ताकत है। यह संस्कृति समाप्त होने पर जाट कौम और रेलवे स्टेशन की भीड़ में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। जाट कौम की इस ताकत से सरकारें तथा दूसरे लोग अच्छी तरह परिचित हैं।

हकीकत तो यह है कि सर्वखाप पंचायत, खाप पंचायत और गौत्रा प्रथा जाट-कौम की रीढ़ है।

इसी रीढ़ को तोड़ने के लिए मानव अधिकारों के बहाने पंचकूला से ‘साहनी’ पंजाबी, खत्री सरीखे उच्च न्यायालय तक पहुंच गए हैं जिसमें कुछ जाट भाई भी मानव-अधिकार के ठेकेदार बनकर वाही-वाही लूटने के लिए अपनी अज्ञानता प्रदर्शित कर रहे हैं।

ऐसे ही लोगों ने समलैंगिक सम्बन्धों को कानूनी रूप से जायज ठहराया जो सभी कृत्य पाश्विक वृत्तियों से भी निम्नतर हैं, और कुछ नहीं।

जब लगभग सन् 1990 के बाद दूरदर्शन के प्राईवेट चैनलों की बाढ़ आई तो अधिक कमाई के चक्कर में इन्होंने अश्लील प्रसारण का सहारा लिया जिसका प्रभाव जाट बच्चों पर भी पड़ना लाजमी था।

इसी समय से जाटों की हुक्का संस्कृति भी सिमट रही थी अर्थात् जाटों की नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति का ज्ञान कराने वालों का समाज में भारी अभाव हुआ जिस कारण नई पीढ़ी अपनी संस्कृति से कटती चली गई और वे भाई बहन के पवित्र रिश्ते को ही भूल बैठे।

देशवाल जाट गोत्र का इतिहास

दूसरी और ये कमाऊ चैनल इन रिश्तों को अन्धी वासना का खेल न कहकर इन भाई बहनों को प्रेमी युगल कहकर प्रचार करने लगे जिनका समाचार पत्रों ने भी पूरा साथ दिया।

जाट समाज में भारत की किसी भी एक जाति से अधिक 4800 गौत्र हैं जिनमें से रिश्तों के लिए केवल दो या तीन गौत्र ही छोड़ने पड़ते हैं जबकि पाकिस्तान का मुसलमान जाट आज भी रिश्तों के लिए अपने मां-बाप का गौत्र छोड़ता है लेकिन हमारे यहां मानव अधिकार और इक्कीसवीं सदी का बहाना बनाकर हमारे जाट समाज को तोड़ने के लिए षड्यन्त्र रचे जा रहे हैं जिसमें जाट विरोधी मीडिया अपना मुख्य पार्ट अदा कर रहा है।

अब उसमें न्यायपालिका भी सम्मिलित हो गई है । जज, जो स्वयं अपने नाम के साथ गोत्र जोड़ रहा है फिर भी पूछता है कि गौत्र क्या होता हैं । ऐसे जजों को जज बनने का क्या अधिकार है जिन्हें अपने देश की संस्कृति का ही ज्ञान नहीं है ?

जब इस प्रकार जाट समाज का विघटन शुरू हुआ तो जाट समाज के प्रबुद्ध लोगों की बेचैनी बढ़ी और जाट खापें सक्रिय होने लगी।

जाट कौम में गोत्र विवाद
जाट कौम में गोत्र विवाद

इन जाट खापों की कुछ पंचायतों में ऐसे मूर्ख पंच भी सम्मिलित होने लगे जो ऐसी शादियों की बरातों में शरीक थे और कन्यादान किया अर्थात् वे एक बहिन-भाई की शादी के दर्शक थे और फिर इन्होंने ऐसे फैसले दिए जिसमें बच्चे पैदा होने के बाद भी बहन-भाई का रिश्ता बनाने पर मजबूर करने लगे।

यदि ऐसे फैसले नहीं हुए तो समाचार पत्रों में ऐसे खबरों का खापों को उसी समय खण्डन करना चाहिए था, लेकिन इन्हीं कारणों से जाट कौम की जग हंसाई होने लगी और इन फैसलों पर प्रश्न-चिन्ह लगने लगे।

मनुवादी मीडिया इन्हें तालीबानी फतवे कहकर हवा देने लगा। मौके की ताक में बैठे दूसरे लोग अधिक सक्रिय हो गए तो बबली-मनोज जैसे हत्याकांड होने लगे लेकिन जाट समाज ने इस समस्या के लिए कोई स्थायी समाधान खोजने का प्रयत्न नहीं किया। परिणामस्वरूप आज जाट कौम का अस्तित्व खतरे में है।

जाट कौम में गोत्र विवाद
जाट कौम में गोत्र विवाद

जाट शासन की विशेषतायें

सबसे पहले हमें यह मानना होगा कि गौत्र प्रणाली स्पष्ट रूप से विज्ञान पर आधारित है जो हमारे जाट जीन्स को सक्रिय रखने के लिए अनिवार्य है। जिस धर्म या समाज में इस प्रथा का अभाव है उसमें प्रजनन शक्ति का भारी अभाव पाया गया।

उदाहरण के लिए पारसी समाज जिनकी जनसंख्या सन् 1991 की जनसंख्या से 2001 की जनगणना में 3000 से भी अधिक घट गई जिसके लिए आज यह समाज चिन्तित है।

दूसरा उदाहरण भारत में किसी विशेष एक धर्म के समूह के लोग मुश्किल से 20 प्रतिशत हैं लेकिन भारत के किन्नरों में इन लोगों की संख्या 70 प्रतिशत से भी अधिक है।

वैज्ञानिक परीक्षणों से यह प्रमाणित हो चुका है कि एक ही समूह में रहने वाले जंगली जानवरों में भी प्रजनन की भारी गिरावट आई है।

उदाहरण के लिए अफ्रीका के जंगलों में एक ही समूह में रहने वाले शेरों के झुण्ड समाप्ति के कगार पर पहुंच रहे हैं जिसके लिए उपाय ढूंढे जा रहे हैं।

जाट कौम में गोत्र विवाद – जायज या नाजायज?

संक्षेप में यही कहना है कि जाटों की गौत्र प्रथा विज्ञान पर आधारित है जिस पर जाट कौम को नाज होना चाहिए और जाटों को अपने अस्तित्व की रक्षा जी जान से करनी चाहिए।

अभी-अभी दिनांक 18-5-90 के अंग्रेजी समाचार ‘दी ट्रिब्यून’ के पेज नं० 7 पर दयानन्द मैडिकल कॉलेज लुधियाना के डॉ० सोबती की रिपोर्ट विस्तार से छपी है कि पाकिस्तान से आने वाली खत्री जाति में थेलेशिमिया की बीमारी 7.5 प्रतिशत पाई गई जो सबसे अधिक है इसलिए इस जाति के लोगों को अन्तर्जातीय विवाह करने चाहिएं।

याद रहे हमारी गौत्र/खाप प्रथा के विरोध में सबसे पहले सन् 2005 में पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट में जाने वाले एक साहनी पंजाबी खत्री जाति के हैं। इनका तो बेड़ा गर्क हो रहा है और हमारे पीछे पड़े हैं।

अभी प्रश्न यह है कि इसमें अवरोध क्या है?

इसका एकमात्र बड़ा विरोध सन् 1955 में बना ‘हिन्दू विवाह कानून’ है जिसमें गौत्र का कोई भी प्रावधान नहीं है। इसके अनुसार सगे बहिन भाई के रिश्ते को भी ‘हिन्दू कोड’ वैध मानता है। इसी कारण दिल्ली हाईकोर्ट में 21 जून 2008 को एक सगोत्र विवाह को वैध ठहरा दिया गया।

हिन्दू विवाह कानून
जाट कौम में गोत्र विवाद

इसलिए हमारे समाज में जो इस प्रकार का गैर सामाजिक और हमारे अनुसार गैर धार्मिक कृत्य करता है और उन पर पुलिस प्रशासन जुल्म ढाता हैं न्यायालय हमारी पंचायतों के विरोध में फैसला देता है और जाट समाज मारा-मारा फिरता है जबकि मुख्य दोषी केवल ‘हिन्दू विवाह कानून’ है। यही जाट कौम का आज सबसे बड़ा दुश्मन है।

अभी प्रश्न है कि इस दुश्मन से कैसे लड़ा जाए?

हमें याद रखना होगा कि प्रजातन्त्र और कानून जनता की भलाई के लिए बने हैं। संविधान लोगों की संस्कृति और पहचान की सुरक्षा का विश्वास दिलाता है तो ‘हिन्दू कोड’ हमारी पहचान में रोड़ा क्यों ?

इस हिन्दू कोड का मसौदा भी उन्हीं लोगों ने तैयार किया था जो अपनी बहन की लड़की को बीबी मानते हैं। इसी बीच किसी समाज में किसी करिश्मा कपूर से किसी संजय कपूर की शादी को वैध मानने वाले भी हैं।

इसलिए इस समस्या का पहला और एकमात्र हल ‘हिन्दू कोड’ में संशोधन है । दूसरा हल अपना हमारे समाज का है जिसमें हमारे समाज की इन प्रथाओं को तोड़ने वालों को समाज से बाहर कर दिया जाए।

इसमें केवल कसूरवार व इसमें सहयोग करने वालों को ही यह दंड दिया जाए दूसरों को नहीं चाहे उसके सगे भाई बहन व परिवार ही क्यों न हो। बेकसूर को दंड देना किसी भी न्याय की परिधि में नहीं है।

इस हिन्दू विवाह कानून में गौत्र का प्रावधान करने के लिए हम उच्चतम न्यायालय में भी जा सकते हैं लेकिन ऐसे मामले में न्यायालयों में ज्यादा लम्बे खींच जाते हैं। इसलिए जाट समाज को भारतवर्ष की पंचायत (संसद) में जाना होगा।

सर्वखाप पंचायत करके यह फैसला लिया जाए कि इस मुद्दे को कौन जाट सांसद उठाएगा जो इसका पूरा अध्ययन करके संसद में जाए, यदि इसके बाद भी सरकार जाट समाज की नहीं सुनती है तो इसका अर्थ होगा कि भारत सरकार जाट समाज के हितों, संस्कृति व पहचान की रक्षा करने में समर्थ नहीं है।

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जाट कौम में गोत्र विवाद

इसलिए जाट समाज का इस प्रजातन्त्रा में रहने का कोई भी औचित्य नहीं रह जाता। इसी लिए जाट समाज को भारत सरकार को स्पष्ट तौर पर बगैर किसी हिचक व लाग-लपेट के कह देना चाहिए कि हमें अलग करो, हमें हमारी जमीन से अधिक कुछ नहीं चाहिए लेकिन हमारी जमीन पर जो भी है वह हमारा है चाहे संसद भवन ही क्यों न हो?

इसके अतिरिक्त भी जाट कौम के पास अनेक चाबियां हैं जिन्हें कौम को इस्तेमाल करना चाहिए । ये सभी चाबियां सभी तालों पर सटीक लगेंगी। आवश्यकता केवल आत्मविश्वास और निडरता की है, लीपा पोती की नहीं ।

कुछ समय पहले हरयाणा के मुख्यमन्त्री चौ० भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने विश्वास दिलाया था कि वे संसद में संशोधन का प्रस्ताव लायेंगे। इसी प्रकार चौ० ओमप्रकाश चौटाला ने भी बयान दिया था कि वे हरयाणा सदन में प्रस्ताव लायेंगे लेकिन दोनों ही अब पीछे हट गए हैं।

इनको कम से कम लालू यादव, मुलायम यादव व शरद यादव से सीख लेनी चाहिए जो तीनों अलग-अलग पार्टियों में होने पर भी समाज की बात पर संसद में एक होकर मुखर रहते हैं।

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