जाटों की टूटती पीठ (दिल्ली) और बढ़ती पीड़ा
जाटों को सामाजिक तौर पर जाति कहा जाता है, साहित्यिक तौर पर जाट-चरित्र कहा गया है। अंग्रेजों ने इसे नस्ल (Race) कहा, कई इतिहासकारों ने जाट जाति को एक राष्ट्र की संज्ञा दी है।
किसी भी कौम, वर्ग व धर्म की अपनी एक पीठ होती है। जैसे कि इस्लाम धर्म की मक्का-मदीना, सिक्ख धर्म की अमृतसर, पारसी धर्म की जरुथृष्ट, कैथोलिक ईसाई धर्म की वैटिकन सिटी, यहूदी धर्म की यरुशलम, बौद्ध धर्म की बौद्ध गया, हिन्दू धर्म की भारत के चारों कोनों में चार पीठ हैं।
मराठों की बम्बई है, तमिलों की मद्रास (चैन्नई), बंगालियों की कलकता, ब्राह्मणों की काशी (बनारस) और अग्रवालों की अग्रोहा आदि-आदि। इस प्रकार प्राचीन काल से ही जाटों की पीठ ऐतिहासिक दिल्ली रही है।
चाहे कितने भी बाहरी शासक आये और उन्होंने जुल्म ढ़हाये लेकिन जाटों ने दिल्ली का घेरा नहीं तोड़ा,
जबकि अन्य लोग डर से हिमालय में उत्तरांचल की पहाडि़यों तक चढ़ गये। जाटों ने अपनी इस पीठ के लिए बार-बार खून बहाया जो स्वयं में एक खूनी इतिहास है।
इस बारे में पौराणिक ब्राह्मणवाद व सरकारी इतिहासकारों ने इसे छिपाये रखा है जिसके कुछ विशेष कारण रहे हैं।
जाटों की टूटती पीठ (दिल्ली) और बढ़ती पीड़ा
मुगलों ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली बदलनी पड़ी, हालांकि आगरा देश के मध्य भाग के ज्यादा नजदीक था।
इसी प्रकार सन् 1911 में जार्ज-पंचम के भारत आगमन पर अंग्रेजों ने अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली बदल ली। यह भी इसलिए नहीं की दिल्ली भारत के मध्य में है, भारत का मध्य तो भोपाल और दमोह है।
यह सब इसलिए किया क्योंकि दिल्ली का प्राचीन कालीन महत्त्व रहा, दूसरा दिल्ली व इसके चारों तरफ जाट व अन्य बहादुर लोग रहते आये।
इस बात को मुगल व अंग्रेज भलीभांति जानते थे कि जब तक इस क्षेत्र पर शासन की लगाम नहीं कसी जायेगी भारत पर शासन कायम रखना आसान नहीं होगा।
अंग्रेज शिक्षित लोग थे, उन्होंने सबसे पहले सन् 1903 में गाँवों का सर्वे करके ‘लाल डोरा’ कायम किया जिसके महत्त्व को हम अभी तक नहीं समझ पाये।
इसके बाद उन्होंने सन् 1911 में दिल्ली जिले का सर्वे करवाया तथा वहाँ अपने भवन, कार्यालय तथा उच्च अधिकारियों के लिए निवास आदि के लिए नई दिल्ली को बसाया।
जाटों की टूटती पीठ (दिल्ली) और बढ़ती पीड़ा
नई दिल्ली को बसाने के लिए अंग्रेजों ने हमारे 13 गाँवों को उजाड़ दिया। इस मालचा खाप समूह के लोगों को दिल्ली से सन् 1912 में दीवाली की रात को निकाला गया,
जिसके चार गांव आज सोनीपत जिले, चार गांव कुरुक्षेत्र, चार गांव उत्तर प्रदेश तथा एक गांव दिल्ली के कादरपुर गांव के पास बसे हैं। यह नकली अधिनियम जो अंग्रेजों ने सन् 1894 में बनाया, के आधार पर किया गया।
पाठक, इसकी एक बार कल्पना तो करें। जिनके बारे में आज तक किसी सरकार, इतिहासकार व किसी पत्रकार ने खोज खबर तक नहीं ली।
यह अंग्रेजों की दादागिरी थी, क्योंकि हम उनके गुलाम थे जबकि इस प्रकार से गाँवों को उजाड़ा जाना उनके किसी भी अधिनियम (सन् 1858, 1861, 1892, 1909, 1919 तथा 1935) के तहत अनुचित था।
दिल्ली में उन्होंने जो भी भवन आदि बनवाये उनमें अधिकतर पैसा यहीं के किसानों का लगा
था, क्योंकि उस समय कोई कल कारखाने नहीं थे और ना ही अंग्रेज एक पैसा इसके लिए इंग्लैंड से लाये। राष्ट्रपति भवन हमारे रायसीना गाँव की चरागाह में बना है।
इसी प्रकार संसद भवन व इंडिया गेट जहाँ हम कभी जौ, चना और बाजरा बोया करते थे, हमारे खेतों के बीच खड़े हैं। अंग्रेजों ने वह सभी किया जो एक बाहरी शासक करता है।