जाटों के कुछ जौहर
जाटों की बहादुरी पर कवि ‘अब्दुल गफ्फार अब्बासी’ अपनी कविता इस प्रकार आरम्भ करते हैं –
जब शत्रु ने नजर मिलाई रूई समझ के उसे धुना है।
इसलिए इस देश में मैंने वीर बहादुर जाट चुना है ॥
जब सन् 1025 में (कुछ इतिहासकारों ने इसे सन् 1030 भी लिखा है) मोहम्मद गजनी सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने आया तो वहाँ के तत्कालीन राजा भीमदेव ने गजनी को संदेश भिजवाया कि उसे जितना धन चाहिए वह देने के लिए तैयार है लेकिन मंदिर को कोई नुकसान ना पहुंचाया जाये।
इस पर गजनी ने उत्तर दिया “वह एक मूर्ति भंजक है, सौदागार नहीं और इसका फैसला उसकी तलवार करती हैं।” उस समय इस मंदिर में लगभग 1 लाख पण्डे पुजारी व देवदासियां उपस्थित थीं। पुजारियों ने कहा यदि गजनी की सेना मंदिर पर आक्रमण करती है तो वह अंधी हो जायेगी।
लेकिन वही हुआ जो अंधविश्वास में होता आया। गजनी ने मंदिर को जी भरकर लूटा और मंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग की मूर्ति को तोड़कर इसके तीन टुकड़े किए।
मंदिर के मुख्यद्वार के किवाड़ (जो चन्दन की लकड़ी से सुन्दर चित्रकारी के साथ बने थे) समेत सभी लूट लिया और इस लूट के माल को 1700 ऊँटों पर लादकर गजनी के लिए चला तो रास्ते में सिंध के जाटों ने इस लूट के माल का अधिकतर हिस्सा ऊंटों समेत छीन लिया।
गजनी ने शिवमूर्ति के तीनों टुकड़ों को गजनी, मक्का और मदीना में पोडि़यों के नीचे दबवा दिया ताकि आने-जाने वाले के पैरों तले रोंदे जाते रहें।
इस मन्दिर के वही किवाड़ लगभग 700 वर्षों बाद 6वीं जाट रॉयल बटालियन अफगान की लड़ाई जीतने पर इनको लूटकर लगभग 3000 कि.मि. खींचकर लाई जो आज भी जमरोद के किले (पाकिस्तान) में लगे हैं।
जाटों के कुछ जौहर
ब्रज क्षेत्र में किसानों के लिए लड़ाई लड़ने वाले वीर योद्धा गोकला जाट को जब औरंगजेब ने प्रथम जनवरी 1670 में आगरा में लाल किले के सामने आरे से कटवाकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये।
इनके साथी माड़ू जाट को जीते-जी खाल (चमड़ी) उतरवाकर शहीद किया, ये दोनों जाट वीर योद्धा इस प्रकार मुगल शासन में होने वाले भारत के पहले शहीद थे। लेकिन उस जगह पर आज तक उनकी न तो कोई यादगार है और न ही कोई स्मृतिचिन्ह है।
इसके लिए जाट समुदाय भी तो कम दोषी नहीं है। उस समय तो जाटों ने इसका बदला लेने के लिए औरंगजेब की नाक के तले फतेहपुर सीकरी के किले व महल को वीर योद्धा राजाराम की अगुवाई में लूटा, फिर ताजमहल को लूटा।
जब इस पर भी जाटों का गुस्सा ठण्डा नहीं हुआ तो उन्होंने फतेहपुर सीकरी में ही महान् अकबर के मकबरे को लूटकर उसकी कब्र को खोदा और उसकी अस्थियों को आग में जला डाला।
इस लूट की पद्धति को ही छापामार पद्धति कहा गया, जिसे जाटों ने छठी सदी में ही सिंध में इजाद कर लिया था। इसी लड़ाई की पद्धति को आज गुरिल्ला वार-फेयर तथा जंगल वार फेयर आदि नामों से जाना जाता है।
यह मौलिक रूप से जाटों की खोज थी जो अपने से अधिक ताकतवर के विरुद्ध लड़ने का एक तरीका है।
इसी पद्धति के आधार पर आगरा, मथुरा व भरतपुर क्षेत्र में जाट व किसानों के नेता वीर योद्धा राजाराम के भाई चूड़ामन ने मुगलों का इस क्षेत्र से दक्षिण का रास्ता पूरी तरह अवरुद्ध कर दिया।
इस रास्ते से आने-जाने वाले मुगलों के खजानों, उनके कारिन्दों, शुभचिन्तकों व उनके पिट्ठुओं को बुरी तरह कई वर्षों तक जी भरकर लूटा-पीटा और एक दिन मुगलों ने हाथ खड़े कर दिए और चूड़ामन को उस क्षेत्र का नेता मान लिया।
इन्होंने इसी लूट के बल पर एक शक्तिशाली सेना खड़ी कर दी, जिसने भरतपुर की एक महान् रियासत की स्थापना का रास्ता साफ कर दिया और वे ‘बेताज बादशाह’ कहलाये।
छत्रपति शिवाजी (बालियान गोत्री जाट) मराठा ने इसी छापामार युद्ध की पद्धति के बल पर दक्षिण में मुगलों को खूब लूटा।
शिवाजी के साथियों को इस छापामार युद्ध की पद्धति सिखलाने के लिए उनके धर्मगुरु रामदास के कहने पर इस पद्धति के विशेषज्ञ मोहनचन्द्र जाट तथा हरिराम जाट को प्राचीन हरयाणा से भेजा गया था।
यही लोग दक्षिण के शक्तिशाली मराठा राज की नींव डालने के आधार बने।
यही जाट लड़ाकू शिवाजी फिर ब्राह्मणवाद के जाल में फंस गये जिस कारण इनका राज बाद में पेशवा ब्राह्मणों के हाथ में चला गया। (विस्तार से इसके बारे में आगे पढें)।
इसी प्रकार दक्षिण के एक प्रमुख राज विजयनगर की सेना को छापामार युद्ध पद्धति सिखलाने के लिए प्राचीन हरयाणा से सर्वखाप पंचायत ने शंकरदेव जाट, ऋषलदेव जाट, शिवदयाल गुर्जर, ओझाराम खाती, शीतलचन्द रोड़ तथा चण्डीराम राजपूत को वहाँ के राजा के आग्रह पर भेजा तथा इसी बल पर इस राज को मजबूती मिली जो 250 वर्षों तक चला।
जाटों के कुछ जौहर