दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर का जाट भवन आवश्यक क्यों ?
किसी भी धर्म, देश, समाज और संगठन का सुचारू रूप से संचालन करने के लिए मुख्यालय की आवश्यकता पड़ती है जहां पर उसकी सभी समस्याओं का निदान व भविष्य की योजनाओं पर विचार विमर्श करके आगे की रणनीति बनाई जाती है। इसलिए सभी समुदायों ने अपने-अपने मुख्यालय बनाए हुए हैं।
उदाहरण के लिए इस्लाम का मक्का-मदीना, सिखों का अमृतसर, कैथोलिकों का बेटिकन सिटी, यहूदियों का येरूशलम, पारसियों का जरुर्थस्ट, बौद्धों का गया, मराठों का मुम्बई, तमिलों का चेन्नई, आर.एस.एस. का नागपुर और अग्रवालों का अग्रोहा आदि-आदि।
भारत की राजधानी दिल्ली भी जाटों की रही लेकिन जाटों को छोड़कर अन्य सभी के अपने-अपने शहरों में भवन बने हुए हैं और वहां से इनके मुख्यालय चलते हैं ।
जब अंग्रेजों ने दिल्ली को सन् 1912 में अपना मुख्यालय (राजधानी) बनाया तो सत्ता के नजदीक रहने के लिए रियासतों के राजाओं ने भी दिल्ली में अपने-अपने भवन बनवाए जिन्हें आज बीकानेर हाउस, जयपुर हाउस, पटियाला हाउस आदि नामों से जाना जाता है।
देश आजाद होते ही सभी राज्यों ने भी अपने-अपने हाउस (भवन) बनाए जैसे कि नागालैण्ड हाउस, मणिपुर हाउस, राजस्थान हाउस व हरियाणा भवन आदि-आदि।
इनको देखते हुए समझदार जातियों ने भी दिल्ली में अपने भवन बनवाए जैसे कि राजपूत भवन, गुर्जर भवन, अग्रवाल भवन, यादव भवन आदि।
यहां तक कि हरियाणा के सुदूर पश्चिम में तथा राजस्थान में रहने वाली बिश्नोई जाति ने भी दिल्ली में अपना भवन बना दिया । लेकिन जाट कौम के दिये के तले अंधेरा ही रहा है।
दिल्ली की 70 प्रतिशत जमीन जाटों की थी जिसे डी.डी.ए. कौड़ियों के भाव अधिकृत करती रही और उस पर चालाक लोग ट्रस्ट आदि पंजीकृत करवाकर अपने हस्पताल, स्कूल व कॉलेज बनाते रहे और व्यापार के केन्द्र खोलकर लूटते रहे ।
लेकिन जाट अपने मुआवजे के लिए सरकारों की दहलीज पर सिर पटकते रहे और अन्त में किराए पर आकर टिक गए ।
दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर का जाट भवन आवश्यक क्यों ?
उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व केन्द्र में जाट मन्त्री, मुख्यमन्त्री, उपप्रधानमन्त्री तथा प्रधानमन्त्री पद तक पहुंच गए लेकिन दिल्ली में जाटों को अपने घर का कभी ख्याल तक नहीं आया।
याद रहे वह घर पूर्ण नहीं होता जिसमें अपनी बैठक (ड्राईंग रूम) ना हो और वह गांव पूर्ण नहीं होता जिसकी अपनी कोई चौपाल ना हो क्योंकि इन जगहों से ही किसी परिवार, खानदान या गांव का उचित संचालन होता है।
भारतवर्ष की प्रशासनिक शक्ति दिल्ली में रहती है जहां से पूरे देश को संचालित किया जाता है । जब जाटों को दिल्ली में बैठने, सोचने और विचार विमर्श करने का कोई स्थान ही नहीं है तो जाट कौम उस केन्द्रीय शक्ति से अपना तालमेल कैसे कर पाएगी?
किसी एक दिन के लिए किसी हॉल या स्टेडियम को किराए पर लेने से कोई भी हल नहीं निकलता है । इसके विकल्प के लिए जाटों द्वारा जनकपुरी में स्थापित महाराजा सूरजमल संस्थान को भी बार-बार चुना जाता रहा है जो इस उद्देश्य के लिए नहीं बनाई गई है।
यदि जाट कौम ‘जाट भवन’ के महत्त्व को समझ जाए तो दिल्ली में विश्व का सबसे बड़ा भवन ‘जाट भवन’ बन सकता है जिसके लिए हरियाणा सरकार की भी दिल्ली में दर्जनों जगह पर जमीन पड़ी हैं दिल्ली में हरियाणा की 32 बड़ी-बड़ी सम्पत्तियां (जमीन) बिकाऊ हैं।
आज जाट कौम के पास पैसे की कोई कमी नहीं है, कमी है तो केवल इच्छा शक्ति की है । मैंने लेख “धर्मनिरपेक्ष जाट कौम पाखण्डवाद की चपेट में” भी यह सिद्ध किया है कि जाट कौम प्रतिवर्ष अरबों रुपया पाखण्डवाद पर बर्बाद कर रही है।
यदि इसी बर्बादी को रोक दिया जाए तो राष्ट्रपति भवन से बड़ा जाट भवन और जाट मेडिकल कॉलेज, इंजीनियर कॉलेज और गांवों में अनेक स्टेडियम बनाकर जाट कौम की प्रतिष्ठा को चार चांद लगा सकते हैं।
जाट के लिए ऐसा करना कुछ भी कठिन नहीं है, अगर कमी है तो केवल जागरूकता और इच्छा शक्ति की है।
दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर का जाट भवन आवश्यक क्यों ?
जाट कौम में गोत्र विवाद – जायज या नाजायज?
निष्कर्ष:
बड़ी खुशी की बात है कि हरियाणा के 21 जिलों में से 19 जिलों में जाट धर्मशालाएं बन चुकी हैं और अन्य जिलों में बन रही हैं। रोहतक, सोनीपत, हिसार व झज्जर जिलों में दो-दो धर्मशालाएं बन चुकी हैं।
कुरुक्षेत्र की धर्मशाला, जो सभी साधनों से सम्पन्न है पूरे भारत में सबसे बड़ी धर्मशाला है । हो सकता है कि यह धर्मशाला एशिया व संसार में भी बड़ी हो लेकिन कठिनाई यह है कि वहां पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खाने पर खर्च करके भीखमंगों को पाला जाता है ।
अधिकतर धर्मशालाओं को ताश खेलने के अड्डे मान लिया गया है जहां लोग प्रातः से ही ताशों में जुट जाते हैं । ये लोग इतनी बेशर्मी से ताश खेलते हैं कि वहीं समाज की कोई भी बैठक करे इन्हें कोई लेना-देना नहीं होता ।
यही लोग तो वास्तव में जाट समाज पर बोझ हैं इनको समझाना ऊंट को गाड़ी में बैठाने जैसा हैं । शायद बैठ-बैठकर इनकी रगों में जाट का खून ठण्डा पड़ चुका है। जिन लोगों की घर में कदर नहीं या कदर करवाते नहीं वे सुबह से ही यहां ताशों पर जुट जाते हैं ।
ऐसे जाट, जाट कौम पर बोझ हैं। इन जाट भाइयों को वृद्ध आश्रमों में चले जाना चाहिए । ऐसा न हो कि ये जुआरीखाना न बन जाए और समय आते गलत कार्यों के अड्डे न बन जाएं ।
अभी तक भिवानी धर्मशाला में ताश खेलने की पाबन्दी है । इन धर्मशालाओं का उद्देश्य आरामगाह नहीं होना चाहिए बल्कि कौम के लिए चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श, पठन-पाठन व जाट महापुरुषों के जन्मदिन, शहीदी दिवस व निर्वाण दिवसों के समारोह आदि का आयोजन होना चाहिए । वरना इनका मूल उद्देश्य व्यर्थ होगा ।
केवल जाट शब्द लिखने या कहने से कोई हल नहीं है। इसी प्रकार जाट कौम के पूरे उत्तर भारत में अनेक स्कूल, कालेज हैं लेकिन वहां पर जाट कौम के इतिहास/ संस्कृति का कोई परिचय नहीं करवाया जाता ।
इसलिए उनका उद्देश्य भी पूर्ण नहीं है क्योंकि हमारी आने वाली पीढ़ी को अपनी संस्कृति का ज्ञान करवाना भा हमारा उद्देश्य होना चाहिए । वरना इसके परिणाम अभी गोत्र के मामलों में आ रहे हैं ।
इसलिए जाट कौम संकल्प ले कि वह दिल्ली में अपनी शक्ति का प्रतीक जाट भवन बनवाकर ही रहेगी ।
जाट बलवान – जय भगवान
दिल्ली में राष्ट्रीय स्तर का जाट भवन आवश्यक क्यों ?