जाट शासन की कुछ विशेषतायें
जाट इतिहास व उनके शासन की कुछ विशेषताएं हैं जो किसी भी अन्य हिन्दू राज-प्रशासन से मेंल नहीं खाती हैं। क्योंकि यह एक अन्तर्राष्ट्रीय (Global) नस्ल रही है, जिसको आज हम जाट कहते हैं।
जाट शासन की कुछ विशेषताएं इस प्रकार रही हैं:-
(1) जाट शासन चाहे बौद्ध धर्म के समय या बाद में सभी के सभी प्रजातांत्रिक थे जिसमें सभी धर्मों व जातियों को समान अधिकार दिये गये।
उदाहरण के तौर पर मौर्य (मोर) गुप्त (धारण), सम्राट् हर्षवर्धन, महाराजा सूरजमल तथा महाराजा रणजीतसिंह आदि-आदि।
उदाहरण के लिए महाराजा सूरजमल की सेना में 30 प्रतिशत मुस्लिम तथा महाराजा रणजीत सिंह की सेना में इससे भी अधिक मुसलमान थे जिनमें बहुत से औहदेदार थे।
जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण
(2) जाट शासक कभी धार्मिक तौर पर रूढि़वादी नहीं रहे और इन्होंने सभी धर्मों को बराबर का सम्मान दिया। इसी कारण गद्दारों के शिकार भी हुये। लेकिन अपनी इंसानियत को कभी नहीं छोड़ा।
(3) किसी भी जाट राजा ने कभी भी किसी बाहरी आक्रमणकारी या मुगल व अंग्रेज सत्ता के सामने घुटने टेककर अपनी बहू-बेटियों के ‘डोले’ नहीं दिये, बल्कि दूसरों की लड़कियों के ‘डोल़े’ लेने में कभी हिचकिचाये भी नहीं।
उदाहरण के तौर पर ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ ने सिकन्दर के सेनापति सल्यूकस की बेटी हैलन का ‘डोल़ा’ आग्रह पर लिया तथा महाराजा रणजीतसिंह की 17 रानियों में एक रानी गुलबेगम एक मुसलमान जागीरदार की बेटी थी।
इसके अतिरिक्त महाराजा सूरजमल के पिता महाराजा बदनसिंह के हरम में भी कुछ मुसलमान जागीरदारों व नवाबों की बेटियां थीं।
इसलिए कहावत चली ‘जाट के घर आई तो जाटनी कहलाई’। जाटों के लिए ‘खेत के डोळे की तथा बेटी के डोळे की’ का विशेष महत्त्व रहा है।
जाट इतिहास व शासन की विशेषताएं तथा जाट इतिहास नहीं लिखे जाने के कारण
(4) जाटों ने कभी अपने देश से गद्दारी नहीं की, चाहे वह भारत हो या मध्य एशिया या फिर यूरोप का देश और ना ही कभी किसी युद्ध में जट्टपुत्रों ने पीठ दिखलाई, जबकि भारत का अन्य इतिहास गद्दारों व षड्यंत्रों से सना पड़ा है और किसी न किसी रूप में यह क्रम आज भी जारी है।
(5) इतिहास गवाह है कि जाटों ने हमेशा दूसरों पर विश्वास किया, जिस कारण वे हमेशा धोखे के शिकार हुये और ये धोखा-धड़ी करनेवाले हमारे ही देश के सम्माननीय कहे जानेवाली जातियों के लोग थे।
(6) जाटों ने कभी पैसे देकर इतिहास नहीं लिखवाया (केवल छत्रपति शिवाजी को छोड़कर, जिन्हें आमतौर पर इतिहासकार भी जाट नहीं मानते हैं)!
इतिहास में जाट नाम न लिखे जाने के कारण
वैसे तो भारत का मुख्य इतिहास ही जाट इतिहास है, लेकिन प्रायः इससे जाट शब्द को हटाया दिया गया है जिसके निम्नलिखित कारण हैं:-
(1) जाट 7वीं सदी तक बौद्धधर्मी थे, जो ब्राह्मणवाद के सबसे बड़े आँख की किरकरी रहे। इसलिए स्वाभाविक था कि जो ब्राह्मणवाद प्राचीन इतिहास का लेखक रहा जिसने इतिहास को पूरा ही तोड़-मरोड़ कर पेश किया तथा जाटों का नाम गायब करने का पूरा प्रयास किया।
(2) जाटों ने हमेशा पाखण्डवाद का विरोध किया जैसे कि ‘स्कन्द पुराण’ आदि का जिसमें किसी भी विधवा लड़की को पुनः विवाह की आज्ञा नहीं थी। लेकिन जाटों ने पुनः विवाह को एक धार्मिक कर्तव्य समझा, जिसको आज यही पौराणिक ब्राह्मणवाद भी मानने पर बाध्य है। अर्थात् ये ब्राह्मणवाद भी आज इसके कारण शूद्र हो गया है।
(3) जाटों ने हमेशा समानता के सिद्धान्त को अपनाया जबकि ब्राह्मणवाद अपनी ‘श्रेष्ठता की पट्टी’ को कभी हटाना नहीं चाहता था। क्योंकि जाट बीच के एजेण्ट को पसन्द नहीं करता। वह चित्र की जगह चरित्र को महत्त्व देनेवाला रहा।
जाट का सिद्धान्त ‘आत्मा ही परमात्मा है’ का रहा है। जहां ब्राह्मणवाद के लिए कोई स्थान नहीं था। इसलिए इन्हें जाट हमेशा बुरे लगे। यह स्थिति आज भी है।
(4) जाटों की संस्कृति पंचायत और प्रजातंत्र पर आधारित रही जिसमें पण्डा व पुरोहित का कोई स्थान नहीं था। इसलिए यह स्वाभाविक था कि ब्राह्मणवाद ने हमेशा जाटों को नकारा तथा जाटों ने स्वयं कभी अपने इतिहास लिखने व लिखवाने में दिलचस्पी नहीं दिखलाई।
क्योंकि उनका विश्वास रहा कि ‘वे इतिहास बनाते हैं लिखते नहीं’ इसलिए कई विदेशी इतिहासकारों ने इस बारे में जाटों को बहुत लताड़ा है जिसमें प्रमुख मिस्टर ग्रिमस अंग्रेज हैं।
स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी व श्री वेदव्रत शास्त्री जी ने अपने ग्रंथ देशभक्तों के बलिदान में लिखा है – ‘जाटों ने कभी भी लेखकों का सम्मान नहीं किया और न ही कभी स्वयं लिखने का प्रयास किया।’
(5) जब पण्डित शंकराचार्य ने नया हिन्दू धर्म (ब्राह्मण धर्म) चलाया तो पहले इन्होंने प्रचार किया कि कलयुग में कोई क्षत्रिय नहीं होता, लेकिन पहले इन्होंने जाटों को शूद्र कहकर नकारा।
और जब बगैर क्षत्रिय के इनकी दुकान नहीं चली तो इन्होंने ‘बृहत्तर यज्ञ’ में ‘अग्नि से राजपूत पैदा करने का षड्यन्त्र रचा तो फिर इन्होंने राजपूतों को क्षत्रिय माना। लेकिन शेष जाटों ने इस नये धर्म को नहीं स्वीकारा तो ब्राह्मणों ने जाटों के इतिहास को गुप्त बना दिया तथा इन्हें म्लेच्छ कहने लगे।
इसी कारण सम्राट् अशोक मोर को भी इन्होंने म्लेच्छ (शूद्र) जाति का लिखा है। हम देखते हैं कि जाट आज तक भी हिन्दू धर्म के जटिल कर्मकाण्डों में निपुण नहीं हो पाये हैं, क्योंकि उनकी जड़ें बौद्ध धर्म में रही हैं।
अभी जाट भी ब्राह्मणवादी ढोंग करने लगे हैं। जैसे कि कांवड़ लाना, जगह-जगह मन्दिर बनवाना आदि-आदि।
याद रहे सम्राट् अशोक मोर के बेटे राजा बृहद्रथ का धोखे से वध उसी के विश्वासपात्र सेनापति पुष्यमित्र ब्राह्मण ने किया था, जिसने राज्य पर अधिकार करने के बाद बौद्ध धर्म की जगह हिन्दू धर्म (पौराणिक धर्म या ब्राह्मण धर्म) को सरकारी धर्म बना दिया।
इसी धर्म को बाद में सनातन धर्म कहने लगे। शशांक ब्राह्मण शासक ने तो जाट बौद्धों के मठ भी तुड़वा डाले इसलिए जाट आज तक कहते फिरते हैं, ‘मठ मार दिया-मठ मार दिया।’ लेकिन अफसोस है जाट आज इस पौराणिक धर्म को (पाखण्डवाद को) अपनाने के लिए लालायित हैं।
दिनांक 27-10-2007 को विश्व हिन्दू परिषद् के सचिव तोगडिया जी ‘आपकी की अदालत’ में कह रहे थे ‘95 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे।’ तो क्या तोगडिया साहब को यह मालूम नहीं कि 85 प्रतिशत हिन्दुओं के पूर्वज बौद्ध भी थे?
जाट इतिहास व शासन की विशेषताएं तथा जाट इतिहास नहीं लिखे जाने के कारण
(6) जाटों में प्राचीन युग में नाम के साथ वंश व उपवंश का इस्तेमाल करने की परम्परा रही जिसमें कुछ वंश व उपवंश बाद में जाटों के गोत्रों में परिवर्तित हुए तथा जाटों में गोत्रों का इस्तेमाल लगभग 1000 साल से प्रारंभ हुआ तथा एक गोत्र से दूसरे गोत्रों की उत्पत्ति होती रही जो क्रम आज तक जारी है, इसी कारण प्राचीन इतिहास में जाटों की जाति ढूंढ़ना कठिन हो जाता है।
उदाहरण के लिए वर्तमान युग में भी हम देखते हैं कि महाराजा सूरजमल व उनका पूरा राजवंश सिसीनवारी गोत्री (सिनसिनी गांव के नाम पर) था। महाराजा रणजीत शशि (सांसी गांव के नाम पर) गोत्री थे।
चौ० चरणसिंह का भी यही वंश था। लेकिन जब सन् 1705 में इनके पूर्वज चौधरी गोपाल सिंह पंजाब के भटिण्डा के पास तिरपत गांव छोड़कर बल्लभगढ़ के पास सिंही गांव में बसे तो लोग इन्हें तिरपतिया कहने लगे जो बाद में बिगड़कर तेवतिया हो गया।
इसी प्रकार महाराजा नाहर सिंह भी तेवतिया गोत्री कहलाए। मुरसान के राजा महेन्द्र प्रताप ठेनुवां गोत्री थे।
सर चौधरी छोटूराम (ओहलान), चौ० चरणसिंह (तेवतिया), चौ० देवीलाल (सिहाग), तथा चौ० बंसीलाल (लेघा) ने तो अपने गोत्र तक का इस्तेमाल नहीं किया।
इसी प्रकार सिक्ख जाटों में भी यही प्रथा रही। उन्होंने अपने गोत्र की बजाये अपने गाँव के नाम का ज्यादा इस्तेमाल किया। जैसे सरदार ज्ञानसिंह राड़ेवाला (गिल), प्रतापसिंह कैरो (ढिल्लों गोत्री) तथा सरदार प्रकाशसिंह बादल (ढिल्लों गोत्री) आदि-आदि।
लेकिन दूसरे ब्राह्मणवादी अपने जातिसूचक शब्दों का खुलकर आज तक इस्तेमाल करते रहे हैं, उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है।
इसके अतिरिक्त देवेवसंहिता का श्लोकेक नं. 17 तो स्थिति को बिल्कुल ही स्पष्ट कर देता है –
गर्वखर्वोऽत्र विप्राणां देवेवानां च महेश्श्वरी।
विचित्रं विस्मयं सत्वं पौरैराणिकैः संगोपितम्॥
अर्थात् – “जट जाति का जो इतिहास है वह अत्यन्त आश्चर्यमय तथा रहस्यमय है इस इतिहास के प्रकाशित होने पर देव-जाति का गर्व खर्व होता है।”
(यह देव जाति पौराणिक ब्राह्मणवाद है और जाट इतिहास के प्रकाशित होने पर इस ब्राह्मणवाद के द्वारा प्रचारित इतिहास का भांड़ा-फोड़ होने का हमेशा डर बना रहा।
यही मुख्य कारण है जिसकी वजह से जाटों का इतिहास से नाम लुप्त करने का प्रयास होता रहा है – लेखक।
आधार पुस्तकें:
- सिख इतिहास,
- जाट इतिहास
- भारतीय इतिहास का अध्ययन।
मल्लयुद्ध (कुश्ती) जाटों का अपना खेल