ईसाई धर्म और जाट
जाटों ने ईसाई धर्म को यूरोप में ही समेट दिया था लेकिन इस्लाम धर्म में आपसी फूट और मारकाट की वजह से यूरोप में जाटों ने इस्लाम धर्म छोड़कर 16वीं सदी में ईसाई धर्म अपनाया।
यूरोप में जाटों को छोटे जाट तथा बड़े जाट के नामों से ही जाना गया। जो जाट पहले गये वे छोटे-छोटे दलों में गये जैसे कि तूड़, बल, खोखर व बैंस आदि-आदि। इन्हें छोटे जाट कहा गया। बाद में मौर जाटों आदि की अगवाई में जो जाट बड़े दलों में गये उन्हें बड़ा जाट कहा गया।
Rise of Christianity में यूरोपियन लेखकों का हिन्दी अनुवाद संक्षप में इस प्रकार है यूरोप तथा इटली की संस्कृति पूर्णतया मोर जाटों की देन है। गणित में शून्य का प्रयोग जाट ही अरब से यूरोप लाये थे।
मौर जाट स्थानीय लोगों से अधिक cultured (सभ्य) थे, जिन्होंने खेती के नये तरीके अपनाकर इन राज्यों को धनाढ्य बना दिया। यही इसका सार है।
भारतीय इतिहासकार शिवदास गुप्ता जी का कथन है – “जाटों ने तिब्बत, यूनान, अरब, ईरान, तुर्कीस्तान, जर्मनी, साईबेरिया, स्कैण्डिनोविया, Kent Kingdom इंग्लैंड, ग्रीक, रोम व मिश्र आदि में कुशलता, दृढ़ता और साहस के साथ राज किया और वहाँ की भूमि को विकासवादी उत्पादन के योग्य बनाया था।” (प्राचीन भारत के उपनिवेश पत्रिका अंक 4.5 1976)।
यूरोप में कैथोलिक ईसाई धर्म और जाट
स्वयं स्वामी दयानन्द जी लिखते हैं कि आर्य लोग भारत से मिश्र, यूनान, रोम, यूरोप होते हुए अमेरिका पहुंचे थे तो जाटों को छोड़ यह आर्य फिर कौन थे? जाटों का तो स्वयं एक आर्य गोत्र भी है।
इन मोर जाटों ने 300 ई० पू० से लेकर 15वीं शताब्दी तक लगभग 1800 साल तक भारत, मध्य एशिया तथा यूरोप पर कहीं ना कहीं अपना परचम हमेशा लहराये रखा।
यही यूरोपियन इतिहासकार आगे लिखते हैं “मोर जाटों ने 16वीं सदी में यूरोप में कैथोलिक ईसाई धर्म अपनाया और चर्च के नियमों में जितने भी सुधार हुए वे इन्हीं जाटों की देन हैं।”
इससे पहले यहाँ ईसाई धर्म में विधवा औरत को पुनः विवाह का अधिकार नहीं था जो इनके आने पर ही हुआ।’’
रोम वासियों के युद्ध के देवता के वाहन का नाम मोर पक्षी लिखा गया है। जबकि रोम में कभी मोर पक्षी था ही नहीं। यह वास्तव में भारत से जाने वाले ही जाट लोग थे जिनका गोत्र भी मौर्य था।
जाट यूरोप में प्राचीन समय में गये। इसके तीन ही उदाहरण देने पर्याप्त होंगे –
पहला उदाहरण
जब सन् 1983 में चौ. बलराम जाखड़ भारतीय संसद के अध्यक्ष के बतौर इंग्लैंड गये और वहाँ के संसद अध्यक्ष डा. बर्नार्ड वैदर हिल से मिले जो इन्हीं की तरह लम्बे-तगड़े थे, वे इनको देखते ही तड़ाक से बोले कि ‘आप जाट हैं?’
इस पर चौ० बलराम जाखड़ ने जब हामी भरी तो उन्होंने कहा ‘कि वे भी जाट हैं और शाकाहारी हैं।’ यह था दो जाटवंशजों का हजारों साल बाद सात समुद्र पार मिलन। यह खबर ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में दिनांक 12.07.1983 में विस्तार से छपी थी।
दूसरा उदाहरण देखिए
कि रोमानिया देश के संसद अध्यक्ष ने सन् 1993 में भारत भ्रमण के दौरान भोपाल में बयान दिया कि ‘उनके पूर्वज भारत में पंजाब व इसके आसपास के किसी क्षेत्र के रहनेवाले जाट या राजपूत थे (राजपूतों को पौराणिक ब्राह्मणवाद की वजह से भारत से बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी- लेखक।)’ यह खबर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के 30 दिसम्बर 1993 के अंक में विस्तार से छपी थी।
तीसरा उदाहरण
Published on January 11, 1980 – The New York Times.
The Origin of the Gypsies – There appears to be very reasonable for believing with Capt. Richard Burton that the Jats of North-Western India furnished so large a proportions of the emigrants or exiles who from the tenth century, went out of India westward, that there is risk assuming it as a hypothesis, at least that they formed the Haupotstamm of the gypsies of Europe……they dealt in horses were naturally familiar with them……their women were fortune-tellers, especially by chiromancy……in several European countries they long monopolized them. Even they were a master of agriculture.
They had shown great skill of dancers, musicians, singers, acrobats and it is a rule almost without exception that there is hardly a Travelling Company of such performances…… their hair remains black to advanced age and retain longer than European. They speak Aryan tongue which agrees in the main with that of Jats…..this was a bold race of North-Western India, which at one time had such power as to obtain important victories over caliphs. They were broken and dispersed in the eleventh century.
अर्थात् यह विस्तृत रिपोर्ट अमेरिका के प्रसिद्ध अखबार ‘न्यूयार्क टाइम्स’ के 11 जनवरी 1880 के अंक में छपी थी, जिसमे लगभग ग्यारहवीं सदी से जो जाट यूरोप में गए उन्हें जिप्सी कहा गया। इसका संक्षेप में अर्थ है कि ‘यूरोप में पाए जाने वाले जिप्सी जाति के लोग भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र से दसवीं सदी में गए।
जाट लोग स्वाभाविक तौर पर घोड़ों से जुड़े थे। इनकी औरतें भाग्यवादी कहानियां सुनाने में माहिर थी। वास्तव में ये लोग खेती-बाड़ी के मास्टर थे। इनके काले बाल लम्बी आयु तक रहते हैं और ये आर्यन जुबान बोलते हैं। ये भारत के उत्तर पश्चिम में रहने वाली दबंग जाट जाति से सम्बन्ध रखते हैं जिन्होंने एक समय खलीफों को भी हरा दिया था।’
यूरोप में कैथोलिक ईसाई धर्म और जाट
यह लेख सिद्ध करता है कि ग्यारहवीं सदी तक जाट दलों के रूप में यूरोप जाते रहे हैं और बाद में जाने वाले जाटों को जिप्सी के नाम से जाना जाता है। किसी पाठक ने इस पर एतराज उठाया कि जाट जिप्सी नहीं हो सकते क्योंकि जाट जहां भी गए, खेती बाड़ी का धंधा अपनाया।
पाठक का विचार उचित हो सकता है लेकिन हमारे देश में ही प्राचीन में कई जाटों ने खेती न अपनाकर दूसरा धंधा अपनाया जिस कारण वे दूसरी जातियों में सम्मिलित होते चले गए। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं।
सन् 1998 में चौ० सोमपाल शास्त्री जी जब भारत सरकार के कृषि राज्यमन्त्री थे तो सरकारी कार्य से ईराक में गये थे। उस समय उनकी एक घण्टा और 20 मिनट ईराक के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन से वार्तालाप हुई। जिसमें उनके पूछने पर शास्त्री जी ने अपने को जाट बतलाया तो सद्दाम हुसैन ने कहा, “जाट तो एक मार्शल कौम है और वे भी एक मार्शल कौम से हैं तथा हमारा मूल वंश एक ही है।”
यहां एक हैरान करने वाली घटना का भी संक्षेप में वर्णन किया जाता है कि जब अंग्रेज भारत आए तो भारत में आने वाला पहला अंग्रेज डॉ० थॉमस मोर ईसाई जाट था जो भारत में भ्रमण के लिए आया था।
यह लगभग सन् 1600 की घटना है। बादशाह जहांगीर की बेगम बीमार थी। डॉ० मोर साहब को पता चला तो वह दरबार में पेश हुआ और बादशाह से बेगम के इलाज की आज्ञा मांगी।
आज्ञा मिलने पर उसने बेगम को जल्दी ठीक कर दिया जिस पर बादशाह ने इलाज के बदले इनाम मांगने को कहा तो डॉ० मोर ने अपने निजी लाभ व स्वार्थ को छोड़कर अपने देशहित में अपने देश ब्रिटेन से भारत में स्वतन्त्र व्यापार की आज्ञा मांगी जिससे खुश होकर बादशाह ने ‘शाही फरमान’ जारी किया और ब्रिटेन से कर मुक्त व्यापार आरम्भ हुआ।
डॉ० मोर चाहता तो करोड़ों रुपया मांग सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। यह था जाट का चरित्र। (पुस्तक – किसान विद्रोह और संघर्ष)
यूरोप में कैथोलिक ईसाई धर्म और जाट
एक और अंग्रेज लेखक थॉमस मोर ने अपनी पुस्तक में अपने को मौर गोत्र का जाट माना हैं, तो जर्मन विद्वान् लेखक थॉमस मान ने अपने को मान गोत्री जाट माना है ।
डॉ० रिसले ने मिश्र के नेता गमल अब्दुल नाशर को निशर गोत्र का जाट कहा, वे अन्त में लिखते हैं – ‘When a Jat runs wild it needs God to hold him back. अर्थात् जब एक जाट बिगड़ जाए तो उसे भगवान ही संभाल सकता है।
भारतीय फौज में अंग्रेज अफसर सर ले० जनरल जेम्स उट्रम (जाट) हुक्के के पियक्कड़ और उसके जबरदस्त फैन थे, जो यात्रा के दौरान भी हमेशा अपनी जीप में हुक्का रखते थे। (पुस्तक – वीरभोग्या वसुन्धरा तथा फौजियों की जबानी)।
इसी प्रकार 139 जाट गोत्रों का मध्य एशिया व यूरोप में पाये जाने का पूरा विवरण डॉ. बी.एस. दहिया ने अपनी पुस्तक Jats-The Ancient Rulers में किया है। फिर भी भारतीय इतिहासकारों को क्या प्रमाण चाहिये?
प्रो. बी.एस. ढिल्लो (कनाडा वासी) ने भी एक बहुत गहन शोध करके पुस्तक लिखी है- ‘History and Study of the Jats’ जिसमें सैकड़ों विदेशी इतिहासकारों के विचार देकर डॉ. बी.एस. दहिया के विचारों को उचित सिद्ध किया है। जाट जाति एक विश्व जाति है, अर्थात् Jat is a Global Race.