सर मलिक खिज़र हयात तिवाना (जन्म 1900- मृत्यु 1975),
1942 से 1947 के जलवायु परिवर्तन काल के दौरान पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी (राष्ट्रवादी जमींदारा पार्टी) की सरकार में पंजाब के प्रधानमंत्री (प्रीमियर) थे।
ये महान नेता राजनीती में तिवाना गोत्र के जाट परिवार से आया था जो 15 वीं -16 वीं शताब्दी के बाद से पंजाब के जमींदार वर्ग में प्रमुख था। वे दींनबंधू सर चौधरी छोटू राम के करीबी सहयोगी थे।
मलिक खिजर हयात के पिता मेजर जनरल सर मलिक उमर हयात खान तिवाना (1875-1944) थे, जिन्होंने जॉर्ज पंचम और जॉर्ज VI के मानद सहयोगी-डे-कैम्प के रूप में सन 1924 से 1934 तक भारत के राज्य सचिव परिषद के सदस्य के रूप में कार्य किया।
तिवाना की शिक्षा उनके पिता की तरह, लाहौर के ऐचिसन कॉलेज में हुई थी। 16 साल की उम्र में, उन्होंने युद्ध सेवा के लिए स्वेच्छा से काम किया और 1918 में 17 वीं कैवेलरी में कमीशन प्राप्त किया।
अपनी संक्षिप्त प्रथम विश्व युद्ध सर्विस के अलावा, सर मलिक खिज़र हयात तिवाना ने अफगान युद्ध अभियान में भी छठी जाट बटालियन में सेवा दी , जिसके बाद उन्हें सम्मानित किया गया।
यह भारतीय सेना की जाट रेजिमेंट की वही टुकड़ी थी जिसने अफगानो को हराकर गजनी से सोमनाथ मंदिर के किवाड़ उखाड़कर वापस भारत में लाया था।
अब थोड़ा हम सोमनाथ मंदिर के दरवाजों का इतिहास जान लेते हैं जिन्हे मुहम्मद गजनवी गुजरात से उखाड़कर ले गया था।
जब सन् 1025 में (कुछ इतिहासकारों ने इसे सन् 1030 भी लिखा है) मोहम्मद गजनी सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने आया तो वहाँ के तत्कालीन राजपूत राजा भीमदेव ने गजनी को संदेश भिजवाया कि उसे जितना धन चाहिए वह देने के लिए तैयार है लेकिन मंदिर को कोई नुकसान ना पहुंचाया जाये।
इस पर गजनी ने उत्तर दिया “वह एक मूर्ति भंजक है, सौदागार नहीं और इसका फैसला उसकी तलवार करती हैं।”
उस समय इस मंदिर में लगभग 1 लाख पण्डे पुजारी व देवदासियां उपस्थित थीं। यदि एक एक पत्थर भी मारते तो गजनी की 28 हजार की सेना लहूलुहान हो जाती। पर इसके उल्ट पुजारियों ने कहा यदि गजनी की सेना मंदिर पर आक्रमण करती है तो वह अंधी हो जायेगी।
लेकिन वही हुआ जो अंधविश्वास में होता आया। मुहम्मद गजनी ने मंदिर को जी भरकर लूटा और मंदिर में स्थापित विशाल शिवलिंग की मूर्ति को तोड़कर इसके तीन टुकड़े किए।
मंदिर के मुख्यद्वार के किवाड़ (जो चन्दन की लकड़ी से सुन्दर चित्रकारी के साथ बने थे) समेत सभी लूट लिया और इस लूट के माल को 1700 ऊँटों पर लादकर गजनी के लिए चला तो रास्ते में सिंध के जाटों ने इस लूट के माल का अधिकतर हिस्सा ऊंटों समेत छीन लिया।
गजनी ने शिवमूर्ति के तीनों टुकड़ों को गजनी, मक्का और मदीना में पोडि़यों के नीचे दबवा दिया ताकि आने-जाने वाले के पैरों तले रोंदे जाते रहें।
इस मन्दिर के वही किवाड़ लगभग 700 वर्षों बाद 6वीं जाट रॉयल बटालियन अफगान की लड़ाई जीतने पर इनको उखाड़कर लगभग 3000 कि.मि. खींचकर लाई जो आज भी जमरोद के किले (पाकिस्तान) में लगे हैं।
इस विषय पर एक जाट कवि जयप्रकाश ने कुछ इस तरह गया हैं:
झूठ नहीं थे जाट लुटेरे जो तारीख के पाठां मैं,
लूटण खातिर ताकत चाहिए जो थी बस जाटां मैं…
सोमनाथ के मन्दिर का सब धरा ढका उघाड़ लेग्या,
मोहम्मद गजनी लूट मचा कै सारा सोदा पाड़ लेग्या ।
हीरे पन्ने कणी-मणी चन्दन के किवाड़ लेग्या,
सब सामान लाद के चाल्या सत्राह सौ ऊंट लिए,
कोए भी नां बोल सका सबके गोडे टूट लिए ।
रस्ते मैं सिंध के जाटां नै ज्यादातर धन लूट लिए ।
मोहम्मद गजनी आया था एक जाटां की आँटां मैं….
लूटण खातिर ताकत चाहिए जो थी बस जाटां मैं…
इसी घटना को क्रांतिकारी पंजाबी गायक बब्बू मान ने कुछ ऐसे गाया है:
गजनी से हिंद की इज्जत वापस लाये
दिल्ली नू वी सिंह जीत के छड़ आये
ओहि दिल्ली नपदी अजकल राज नू
सिंह मारदे ठोकर तख्त ताज़ नू
सर चौधरी मलिक खिज़र हयात तिवाना
फ़ौज से आने के बाद सर मलिक खिज़र हयात तिवाना ने अपने पिता की जिम्मेदारी अपने कंधो पर लेते हुए पंजाब में पारिवारिक संपत्ति और खेती बाड़ी की देखभाल करी, जब तक उनके पिता 1929 से 1934 के दौरान लंदन में तैनात रहे थे।
सन 1937 में पंजाब विधानसभा के लिए चुने गए और सर सिकंदर हयात खान चीमा के मंत्रिमंडल में शामिल कर लिए गए, जिन्होंने लोक निर्माण मंत्री के रूप में चुनाव में राष्टवादी यूनियनिस्ट पार्टी (जमींदारा लीग) का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया था।
सन 1942 तक तिवाना इस पद पर बने रहे, फिर सर सिकंदर की मृत्यु के बाद वे पंजाब के प्रधानमंत्री के रूप में 1942 से 1947 तक रहे।
1946 में पेरिस शांति सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य थे।
यूरोप में कैथोलिक ईसाई धर्म और जाट
उसके बाद उन्होंने राजनीति में अपने लिए सक्रिय हिस्से की तलाश नहीं की और देश छोड़ दिया, अगर वो राजनीती में रहते तो पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बनाये जाते।
पर वो तो शुरू से ही देश के विभाजन के खिलाफ रहे थे। भारत का बंटवारा होना उनके लिए बहुत बड़ा दुःख था। उन्होंने चौधरी छोटूराम (उनके धर्म के चाचा) की मृत्यु के बाद से ही एकांकी जीवन जीने का इरादा कर लिया था। चौधरी साहब की असामयिक मौत ने उन्हें अंदर से तोड़ दिया था।
चौ० छोटूराम ओहलान को लाला लोग (हिन्दू पंजाबी अरोड़ा व खत्री) काली झण्डियां दिखाया करते थे। उन्होंने बतलाया था कि उनको खाने में जहर दिया गया था, जिसकी वजह से रात से ही उनके पेट में तकलीफ पैदा हो गई थी। लेकिन हमारे हरयाणवी जाटों को इस बारे में अधिक ज्ञात होना चाहिए।
इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि उनको जहर दिया गया था । आजकल अधिकतर लोग खत्री समुदाय से डरे हुए हैं, क्योंकि यह समुदाय इस कलयुग का शासक है। इसलिए उनके नजदीकी सम्बन्धियों से इस बारे में और अधिक शोध करना बेहतर होगा।
उस समय के सभी बुजुर्ग भारत व पाकिस्तान में मर चुके हैं। पाकिस्तान के जाट पंजाबी जाटों से अधिक वफादार थे। पाकिस्तान में जाट सभा है।
सर चौधरी मलिक खिज़र हयात तिवाना
तिवाना ने 2 मार्च 1947 को अपनी प्रीमियर पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि वे आज़ादी तक शिमला में ही बंद कमरे में बिना किसी से मिले अंदर ही अंदर घुटते रहे।
कहते हैं कि चौ० साहब को देहान्त से कुछ दिन पहले से ही उनके पेट में अचानक दर्द रहने लगा था । कुछ ही दिन में मलेरिया और पेचिस ने भी घेर लिया । उनके निजी डॉक्टर नंदलाल देशवाल दवा दारू करते रहे लेकिन 9 जनवरी 1945 को प्रातः 10 बजे उनके हृदय में पीड़ा हुई और दम घुटने लगा ।
उस समय संयुक्त पंजाब के प्रधानमन्त्री (उस समय राज्य के मुख्यमंत्री को प्रधानमन्त्री कहा जाता था) सर खिजर हयात खां तिवाणा को बुलाया गया । चौ० साहब हयात खां से गले से लिपट गए और धीरे से कहा – हम तो चलते हैं भगवान सबकी मदद करे ।
ये उनके अंतिम शब्द थे।
यह कहकर चारपाई पर फिर से लेट गये और सदा के लिए भगवान के पास चले गए । यह देखकर हयात साहब और परिवार के उपस्थित अन्य लोग सभी रोने लगे ।
यहां इन्सानियत रो रही थी। हिन्दू मुस्लिम जाट भाईचारा रो रहा था, जाट कौम के अरमान रो रहे थे और सबसे बढ़कर जाट कौम का भविष्य रो रहा था । यह देहान्त चौ० साहब के स्थूल शरीर का था जिसकी हमें उस समय परम आवश्यकता थी ।
इससे एक दिन ही पहले 8 जनवरी 1945 को चौ० साहब ने पंजाब के राजस्व मन्त्री होते हुए भाखड़ा बांध का पूर्ण सर्वे करवाकर और इसका निरीक्षण करने के बाद इस योजना पर अपने हस्ताक्षर किए थे जो उनके अन्तिम हस्ताक्षर साबित हुए ।
अक्टूबर 1949 में सर चौधरी मलिक खिज़र हयात तिवाना विदेश से पाकिस्तान लौट आए, ताकि अपने संपत्ति मामलों को अपने वंशजों को सौंपा जा सके। अपनी हर सम्पति अपने वारिसों को सौंपकर उन्होंने दुनिया की जगमगाहट से किनारा कर लिया।
निष्कर्ष:
9 जनवरी सन् 1945 का दिन आधुनिक जाट कौम का सबसे मनहूस दिन था । चौ० छोटूराम ने अपने 25 साल के अथक प्रयास से जिस विचारधारा को स्थापित किया उसकी परीक्षा की घड़ी थी।
सावरकर-नेहरू-गांधी-जिन्ना का सपना साकार हो रहा था। चौ० छोटूराम की कर्मभूमि पंजाब में एक साम्प्रदायिक देश के जन्म की तैयारी होने लगी। चौ० साहब की विचारधारा का सबसे बड़ा स्तम्भ जाट भाईचारा टूटने जा रहा था।
सर चौधरी मलिक खिज़र हयात तिवाना बेबस और लाचार थे क्योंकि उनके जाट धर्म-चाचा चौ० छोटूराम इस दुनिया से जा चुके थे अर्थात् उनके दायां हाथ कट चुका था और इसी दर्द के कारण उसने पाकिस्तान छोड़ दिया और इंग्लैण्ड जा बसे और वहीं एकान्त में मरे लेकिन उनके इस बिछोह को कोई नहीं समझ सका।
चौ० साहब का अंदेशा सच साबित हुआ जब देश की सत्ता काले अंग्रेजों के हाथ आई। पंजाब में जमींदारा पार्टी दफन हो चुकी थी। पाकिस्तान एक नया देश बन चुका था।
सर चौधरी मलिक खिज़र हयात तिवाना
नवीन गुलिया एक साहसी व्यक्तित्व
सर चौधरी मलिक खिज़र हयात तिवाना