जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण
अंग्रेजी सरकार ने सन 1856 में सेना में बहादुरी का सर्वोच्च पुरस्कार विक्टोरिया क्रास आरंभ किया जो सन 1947 तक 1346 वीर सैनिकों को दिये गये जिसमें 40 भारतीयों के हिस्से में आये और इनमें से 10 जाटों के नाम हैं अर्थात अंग्रेजों ने जाटों की बहादुरी पर उनके साथ पूरा-पूरा न्याय किया।
लेकिन सन 1950 से 2020 तक भारतीय सरकार ने लगभग 50 भारतीयों को भारत रत्न से सम्मानित किया जिसमें नाचने, गाने, बजाने वालों, लकड़ी के बल्ले से गेंद को धकेलने वालो व पं. नेहरू का लगभग समस्त खानदान, और भाजपा के संस्थापक आदि सम्मिलित है।
लेकिन आज तक किसी भी जाट को इसके योग्य नहीं पाया। जबकि चौ० छोटूराम किसी भी प्रकार से नेहरू खानदान से निम्न नहीं थे। निम्न की बात तो छोड़ो, पं० नेहरू से चौ० छोटूराम हर मामले में आगे थे।
पीछे थे तो पैसे में और मीडिया के कारण, जो स्वाभाविक था। मीडिया का बर्ताव ऐसा ही चौ० चरणसिंह के साथ था। इसलिए सन 1979 में तंग आकर उन्होंने कहा था ‘काश! मैं ब्राह्मण होता।’
एक बार एक पत्रकार ने चौ० साहब से प्रश्न किया, ‘आप प्रधानमन्त्री क्यों बनना चाहते हैं? तो चौ० साहब ने पत्रकार से उलटा सवाल पूछा, ‘क्या आप पत्रकार से सम्पादक नहीं बनना चाहते?’
जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण
सन् 2005 में चौ० भूपेन्द्र सिंह हुडडा हरियाणा के मुख्यमन्त्री बनने पर कुछ जातियों ने कहना शुरू कर दिया कि सरकार नहीं बदली केवल टांगे बदली हैं और इन लोगों के उस दिन घर पर चूल्हे तक नहीं जले।
चौ० चरणसिंह भारत के गृहमंत्री, वित्तमंत्री तथा प्रधानमंत्री पद तक रहे और उन्होंने भारतीय ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था नीति पर आधारित एक पूरे साहित्य की रचना की जो 18 पुस्तकों के रूप में आज भारतवर्ष के विभिन्न पुस्तकालयों में धूल चाट रही हैं।
जबकि इसी के अध्याय इंग्लैण्ड के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाये जा रहे हैं। (प्रमाण उपलब्ध हैं)। इन्होंने ही कहा था – देश की खुशहाली का रास्ता गांव व खलिहानों से होकर गुजरता है।
जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण
चौधरी देवीलाल भारत के कैबिनेट मंत्री रहे और दो बार उपप्रधानमंत्री रहे। उन्होंने इस देश की बाहुल्य जनसंख्या के हित में ऐसे कानून बनवाये जिनके बारे में कभी किसी भारतीय अर्थशास्त्री ने सोचा भी नहीं था। इन्होंने कहा था, लोकलाज से ही लोकराज चलता है।
चौ० बंसीलाल भारतवर्ष में एक माडल प्रशासक के रूप में चर्चित रहे। चौ० बलदेवराम मिर्धा, सरदार प्रतापसिंह कैरों तथा सरदार प्रकाशसिंह बादल आदि जैसे महान नेताओं को इसके योग्य नहीं समझा
जबकि आसाम के पूर्व मुख्यमंत्री पं० गोपीनाथ बरदोलाई, डा० भगवानदास तथा जी.बी. पंत, प्रणव मुखर्जी, अटल बिहारी, दीन दयाल उपाध्याय (सभी ब्राह्मण) आदि तक को यह सम्मान दे दिया गया।
इसीलिए तो चौ० छोटूराम ने नवम्बर सन 1929 को रोहतक में अपने भाषण में कहा था कि हम गोरे बनियों का शासन बदलकर काले बनियों का राज नहीं चाहते, हम चाहते हैं कि भारतवर्ष में किसान मजदूर का राज हो।
यही बात इससे पहले अमर शहीदभगतसिंह ने भी कही थी। इस प्रकार उनकी कही बात सत्य सिद्ध हो रही है। केवल ‘भारत रत्न’ ही नहीं, जाटों के साथ हर क्षेत्र में पक्ष-पात हो रहा है।
चाहे चीन की लड़ाई हो या कारगिल की लड़ाई, चाहे भारत सरकार की नौकरियों की बात हो या फिर प्राइवेट सेक्टर की। कारगिल की लड़ाई को ही देखिये कि जाट रजिमेण्ट में दूसरी जाति के अफसरों को तो बड़े-बड़े बहादुरी के पुरस्कार दिये गए जबकि सिपाहियों को नहीं।
क्या अफसर बगैर सिपाहियों के ही लड़ रहे थे? इस सबका कारण भी हम जानते हैं। क्योंकि सेना में भी उच्च अधिकारी इसी भापा वर्ग से बढ़ते जा रहे हैं। हमारा ऊंची नौकरियों में क्या हिस्सा है, एक नजर डालें?
जाट शासन की विशेषतायें
हम सभी जानते हैं कि आज देश की नीति का निर्धारण आई. ए. एस. अधिकारी ही करते हैं। मोहर मंत्रिमंडल अवश्य लगाता है:
सन् 1990 में कुल 2483 आई.ए.एस. अधिकारी देश में थे जिनमें 675 ब्राह्मण, 353 कायस्थ, 317 अग्रवाल, 228 बैकवर्ड, 213 राजपूत, 204 अरोड़ा-खत्री, 54 मराठे, 47 मुस्लिम, 37 ईसाई, 298 अनसूचित जनजाति, 31 सिक्ख-जाट, 14 हिन्दू जाट, 6 गुर्जर, 3 सैनी, 1 रोड, 1 बिशनोई, 1 बाल्मीकि
कुल – 2483 जिसमें शहरी क्षेत्रों से 2350 तथा ग्रामीण क्षेत्र से मात्र 133 हैं। जहां भारत की 75 प्रतिशत जनसंख्या रहती है।
केन्द्र में ब्राह्मण जाति की अवस्था सन 1990 में इलाहाबाद पत्रिका अंक 1-11-1990 के पेज नं० 4 के अनुसार इस प्रकार थी:
नोट- याद रहे भारत में ब्राह्मण जाति कुल 3 प्रतिशत है । यह आंकड़ों का कमाल पं० नेहरू की देन है। लेकिन हर कहानी को गरीब ब्राह्मण था कहकर क्यों आरम्भ किया जाता है? इस आदत पर एक बार पाठक भी विचार तो करें? फिर भी ब्राह्मण किस प्रकार गरीब हैं?
हरयाणा राज्य के सन् 1990 के आंकड़े तो इससे भी अधिक चौंकाने वाले हैं, जबकि हरयाणा को जाटों का गढ़ कहा जाता है। हरयाणा में जातिवार राजपत्रित अधिकारियों की संख्या इस प्रकार थी:
लेकिन हरयाणा का जाट आरक्षण के बारे में फिर भी योग्यता की बात करता है तो बड़ी मूर्खता है। जबकि आज केन्द्र में एक भी सचिव जाट जाति का नहीं है, फिर भी जाट आरक्षण को न समझे तो बड़ी भारी भूल है।
यूरोप में कैथोलिक ईसाई धर्म और जाट
हरियाणा के जाटों की आरक्षण की मांग को देखकर ब्राह्मणों व अरोड़ा खत्री कहे जाने वालों ने, जो पहले आरक्षण का विरोध कर रहे थे, आरक्षण की मांग कर डाली। हम चाहते हैं कि उनको जाति की संख्या के आधार पर आरक्षण दे दिया जाए लेकिन एक भी ज्यादा नहीं।
इसी प्रकार तकनीकी शिक्षा में देहातियों का हिस्सा 32 प्रतिशत है लेकिन शहरियों का 68 प्रतिशत है जो एकदम उल्टा है इसलिए तो चौ० छोटूराम ने कहा था कि सबसे बड़ा अजूबा तो यही है कि 15 प्रतिशत लोग 85 प्रतिशत लोगों पर राज करते हैं।
मेरा निजी अनुभव है कि केन्द्रीय सरकार की अधिकारियों की भर्ती में भी भारी गोलमाल होता है। इस बात को विभिन्न परीक्षाओं में साक्षात्कार के नतीजे निकलवाकर ही प्रमाणित किया जा सकता है। इसलिए हम लोगों को अधिक से अधिक सूचना अधिकार का प्रयोग करना चाहिए।
जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण
(ख) जब मुलायमसिंह यादव भारत के रक्षामंत्री थे तो पहले उन्होंने अहीर रजिमेण्ट बनाने का रास्ता तलाशा और जब उसमें सफल नहीं हुये तो उन्होंने अभियान चलाया कि जातिवाद पर आधारित सेना की रजिमेण्ट खत्म कर दी जायें। जबकि सच्चाई यह है कि भारत में केवल जाति के नाम जाट और राजपूत रजिमेण्ट हैं।
इसके अतिरिक्त जितनी भी रजिमेण्ट हैं वे क्षेत्र के आधार पर हैं न कि जाति के आधार पर। उदाहरण के लिए डोगरा रजिमेण्ट।
जम्मू क्षेत्र में मानसर व सानसर दो झील हैं, इनके बीच रहनेवाले लोगों को डोगरा कहा गया जो संस्कृत के शब्द ‘द्वीप’ से बिगड़कर बना, जिसका अर्थ है कि दो पानियों के बीच रहने वाले लोग। जिसमें सभी जातियां हैं।
यही लोग फिर हिमाचल की पहाडि़यों तक फैल गये, जिसमें हिन्दू व सिक्ख डोगरा जाट भी हैं। इसी प्रकार मराठा, मद्रास, गढ़वाल व कुमाऊ आदि रैजिमेंटस हैं। जो सभी क्षेत्रवाद पर आधारित हैं न कि जाति पर।
उत्तरांचल पहाड़ी प्रदेश के दो भाग हैं पहला ‘गढ़वाल क्षेत्र’ तथा दूसरा ‘कुमाऊं क्षेत्र’ और इसी आधार पर ये दो रजिमेंट्स भी बनी हैं जिसमें कुमाऊं रजिमेंट में अहीर जाति का आरक्षण है।
सिख रेजिमेंट धर्म के नाम पर बनी है। इसी प्रकार जाटों का ‘जाट रजिमेंट’ को छोड़कर ‘ग्रिनेडियर रजिमेंट’, राज. राईफल तथा ‘आरमड रजिमेंट’ आदि में 40 प्रतिशत आरक्षण था।
जो मुलायम सिंह जी ने तत्कालीन सरकार को इन रेजिमेंटों में जाटों का आरक्षण 40 से कम करके 20 प्रतिशत करने का प्रस्ताव रखा जो बाद में कांग्रेस सरकार आने पर स्वीकार हो गया। (इस तथ्य को जानने के लिए हमने सूचना के अधिकार का सहारा लिया तो यह बात सत्य पाई गई।)
पाकिस्तान में जाट मुस्लिम
(ग) इस प्रकार हम देखते हैं कि एक तरफ तो आरक्षण कम करने की बात होती रही, वहीं दूसरी ओर आरक्षण बढ़ाने की, लेकिन भारतवर्ष के किसान विशेषकर जाट किसान जो उत्तरी भारत में हजारों की संख्या में (यदि सही सर्वे किया जाये तो इनकी संख्या लाखों की होगी) आत्म-हत्याएं कर रहे हैं लेकिन इनके आरक्षण के बारे में आज तक सरकार ने कभी नहीं सोचा।
जबकि खुद सरकार के एग्रिकल्चर कमीशन (Agriculture Commission) ने रिपोर्ट दी की जिस किसान की जोत दस एकड़ से कम है वह घाटे का धंधा है तथा सरकारी सर्वे रिपोर्ट कह रही है कि 40 प्रतिशत किसान यह धंधा करना नहीं चाहते जबकि सच्चाई यह है कि आज शायद ही कोई किसान इस घाटे के धंधे को करना चाहता हो।
वास्तव में इसके पीछे एक गुप्त प्रचार है, जिससे जाट व किसान भूमि का मोह त्याग दें। इन्हें जमीन की कीमत का लालच देकर आसानी से जमीन को अधिगृहीत व हथियाया जा सके और आनेवाले समय में ये मजदूर बनकर रह जायें।
यह बड़ी गहरी चालें हैं। इन्हें हमे समझना होगा। यह विकास के नाम से हमारा (जाट किसानों का) विनाश है। पहले हम साहूकारों के गुलाम थे, अभी बैंकों के गुलाम हैं। रहे गुलाम के गुलाम।
निष्कर्ष
यही बैंक आज किसान मजदूर की कीमत पर साहूकारों के लिए चल रहे हैं। पं. नेहरू ने देश आजाद होते ही जमीन सरप्लस होने का कानून बनवाया जिससे किसानों की जमीन सरप्लस होती रही और किसान भूमिहीन व बेरोजगार होते रहे, लेकिन क्या कभी किसी अरबपति का एक पैसा भी दूसरे के लिए सरप्लस हुआ है?
आज सेज (SEZ) का जो अलाप कर रहे हैं ये सब बड़े व्यापारियों व विदेशी कम्पनियों के लिए है। किसानों के लिए इसका अर्थ है (Suck Every Zamindar) अर्थात् प्रत्येक किसान को चूस लो।
किसान को उसकी फसल की कीमत देने को तैयार नहीं। परिणामस्वरूप किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। मैं यहाँ गाँव मानकावास जिला भिवानी हरयाणा के आंकड़े पेश कर रहा हूँ –
- लगभग गाँव में कुल परिवार – 660
- लगभग गाँव में जाट परिवार – 460
- 18 दिसम्बर 1992 से 31 दिसम्बर 2005 तक – 460
- गाँव में कुल आत्महत्याएं – 28
- सभी आत्महत्या करनेवालों की आयु 18 से 45 वर्ष तथा 28 में से 26 व्यक्ति बेरोजगार थे।
- इस अवधि में जाटों को छोड़ किसी अन्य जाति के व्यक्ति ने कोई आत्महत्या नहीं की।
सभी ने सल्फास तथा एल्ड्रीन खा व पीकर आत्महत्याएं कीं, जो दोनों फसल की दवाइयां हैं। कानूनी पचड़ों से बचने के लिए कई बार कहा गया कि गलती से सल्फास की गोली व एलड्रीन पी ली गई, जबकि ऐसा होना बिल्कुल असंभव है। क्योंकि दोनों ही दवाइयां बेहद कड़वी हैं जो गलती से भी कोई व्यक्ति अन्दर नहीं गटक सकता है।
ऐसी भी आत्महत्याएं हैं जिनको पेट दर्द या छाती दर्द बोलकर श्मशान घाट पहुंचा दिया जाता है। आम तौर पर प्रचार किया जाता है कि शराब पीकर या गोली खाकर मर गया। लेकिन इस बात पर कभी भी गम्भीरता से विचार नहीं किया जाता कि गांव के जाट का 22 साल का लड़का आज क्यों इतनी शराब पीने पर मजबूर हो गया है?
इसका मुख्य कारण आर्थिक तंगी और बेरोजगारी ही है जिसमें सबसे पहले बेरोजगार के जीवन में हताशा पैदा होती है फिर यही हताशा एक दिन निराशा में बदल जाती है, जिसका सीधा रास्ता आत्महत्या की तरफ खुलता है।
जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण
एक बड़ी आम कहावत है ‘टोटे में तो लठ ही बजते हैं।’ इस सभी के पीछे सरकार द्वारा किसानों की अनदेखी, सरकार की ‘उदार आर्थिक नीति’ व WTO (वर्ल्ड ट्रेड ओर्गेनाईजेशन) जिसे मैं Workers Totally Out अर्थात् सरकार की वह नीति जिसमें कमेरे वर्ग को पूर्णतया बाहर कर दिया गया, कहता हूँ।
इसी से बहुत सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब एक साधारण जन-संख्या वाले गाँव में इस नीति के लागू होने के बाद से (सन् 1991) 28 जाट किसानों के लड़कों ने आत्महत्याएं कीं तो फिर 35000 गाँवों व कस्बों में कितने जाटों ने व दूसरे किसानों ने आत्महत्याएं की होंगी।
नवीन गुलिया एक साहसी व्यक्तित्व
जाट धर्मेन्द्र के वो किस्से जो आपने कभी नहीं सुने होंगे
जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण