राणा जाट गोत्र का इतिहास
सूर्यवंशी बाल या बालियान जाट गोत्र की कई शाखाओं में सिसौदिया और राणा शाखा भी है। इस बलवंश का शासन सन् 407 से 757 ई० तक, गुजरात में माही नदी और नर्मदा तक, मालवा का पश्चिमी भाग, भड़ोच, कच्छ, सौराष्ट्र और काठियावाड़ पर रहा।
इस राज्य की स्थापना करने वाला भटार्क नामक वीर जाटवंशी था। इसने अपने बल वंश के नाम पर गुजरात में काठियावाड़ में बलभीपुर राज्य की स्थापना की। सन् 757 ई० में सिंध के अरब शासक के सेनापति अबरूबिन जमाल ने इस बलभीपुर राज्य को समाप्त कर दिया।
यहां से निकलकर बलवंश के गुहदत्त या गुहादित्य बाप्पा रावल ने अपने नाना राजा माना मौर्य, जो कि चित्तौड़ का शासक था, को मारकर चित्तौड़ का राज्य हस्तगत कर लिया। बाप्पा रावल ने गुहिल या गुहलोत वंश मानकर शासन किया। यह गुहिल बलवंश की शाखा है। इसी वंश की सिसौदिया एवं राणा प्रचलित हुई।
(देखो तृतीय अध्याय, बल-बालियान जाटवंश प्रकरण)।
एकलिंग माहात्म्य में – अथ कर्णभूमिभर्तुशाखा द्वितीयं विभाति लोके, एका राऊल नाम्नी राणा नाम्नी परा महती।
सिसौदे गांव के मूल पुरुष कर्णसिंह से ही रावल और राणा उपाधियों का प्रचलन यद्यपि इतिहासकार मानते हैं। किन्तु सिसौदा वालों की रणरसिकता से ही यह प्रचलित हुआ है ।
राणा जाट गोत्र का इतिहास – History of Rana Jat gotra
किन्तु सिसौदिया की शाखा का नाम राणा क्यों पड़ा, इसकी गहराई में जाने से ज्ञात हुआ कि सन् 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर चढाई करके वहां के शासक राजा रतनसिंह को, उसकी सुन्दर रानी पद्मिनी को प्राप्त करने हेतु, युद्ध में हरा दिया।
गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के लेख अनुसार बाप्पा रावल के नाम पर चली आने वाली रावल शाखा का शासन राजा रतनसिंह के मरने पर मेवाड़ पर से समाप्त हो गया। कुछ वर्षों के पश्चात् सिसौदिया हमीर ने युद्ध करके चित्तौड़ पर फिर अधिकार कर लिया।
फिर अलाउद्दीन खिलजी के मरने तक चित्तौड़ पर आक्रमण नहीं किया। रण में रुचि लेने के कारण हमीर ने राणा पदवी (उपाधि) धारण की। महाराणा अधिक सम्मान का शब्द है।
यह राणा उपाधि केवल उदयपुर राजघराने के लिए ही नहीं, अपितु पंवार जाटवंश के आबूनरेश रावल और उनके निकट परिवार के दान्ता वाले पंवारों का राणा पद यह प्रकट करता है अनेक शूरवीर वंश राणा उपाधि से सम्बोधित हुए हैं।
राणा एक खिताब है, वंश नहीं है। उदाहरणार्थ जाट क्षत्रियों में काकराणा, आदराणा, तातराणा, जटराणा, शिवराणा, चौदहराणा आदि कई वंश अपनी राणा उपाधि पर गर्व करते हैं।
राणा जाट गोत्र का इतिहास – History of Rana Jat gotra
इसी भांति ताजमहल आगरा के समीप बमरौली के निवासी जाट केवल राणा नाम से अपना परिचय देते हैं। उन्हीं में से गोहद के राणा लोकेन्द्रसिंह के पूर्वजों ने ग्वालियर और गोहद पर अधिकार करके प्रजातन्त्री शासन स्थिर कर लिया था।
धौलपुर राजाओं का गोत्र भमरौलिया था परन्तु उनकी उपाधि राणा थी जो कि राणा नाम से बोले जाते थे। (देखो अष्टम अध्याय, धौलपुर जाट राज्य)। सूर्यवंशी काकुस्थ काक वंश की शाखा काकराणा, चौदहराणा, ठकुरेले हैं। काकराणा जाटों की भूतपूर्व किला साहनपुर नामक रियासत जिला बिजनौर में थी।
इस रियासत के काकराणा जाटों ने सम्राट् अकबर की सेना में भरती होकर युद्धों में बड़ी वीरता दिखाई और अपनी राणा उपाधि का यथार्थ प्रमाण देकर मुगल सेना को चकित कर दिया। इनका वर्णन आईने अकबरी में है।
सहनपुर रियासत में काकराणा जाटों के चौदह महारथी (वीर योद्धा) थे जिनके नाम से इस वंश की शाखा चौदहराणा भी है जो पर्वों के अवसर पर साहनपुर रियासत में मूर्ति बनाकर पूजे जाते हैं ।
(अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, काकुस्थ या काक वंश प्रकरण)।
जटराणा – इस वंश की जाटू या जटराणा नाम पर ख्याति है। इनके मुजफ्फरनगर में दतियाना, खेड़ा गढी के समीप 12 गांव हैं। जिला रोहतक में गढ़ी कुंडल, कुजोपुर, सैदपुर, सोहटी गांव हैं।
जिला बिजनौर में मायापुर, सोफतपुर, सहारनपुर में उदलहेड़ी, नंगला, सलारू, मन्नाखेड़ी जटराणा जाटों के प्रमुख गांव हैं।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1017