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चौधरी चरणसिंह

चौधरी चरणसिंह

चौधरी चरणसिंह

चौ० चरणसिंह बड़े बुद्धिमान्, विद्वान्, अर्थशास्त्रज्ञ, प्रवीण राजनीतिज्ञ, कुशल शासक, कर्मयोगी, निडर एवं ईमानदार, निपुण कार्यकर्त्ता, सिद्धान्तों के धनी, स्वाभिमानी, सत्य के पुजारी, भ्रष्टाचार व अन्याय के विरोधी, सरदार पटेल की भांति लोहपुरुष, महर्षि दयानन्द सरस्वती के धार्मिक शिष्य, सच्चे गांधीवादी, भारतवर्ष के किसानों के वास्तविक नेता तथा मजदूरों व गरीबों के मसीहा, महान् देशभक्त एवं भारत माता के सच्चे सपूत थे।

वे अपने देश की भलाई में रुचि रखते थे और उनकी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रति श्रद्धा थी। बड़े-बड़े पदों पर रहते हुए भी सरकारी साधनों के व्यक्तिगत प्रयोग के कट्टर दुश्मन रहे। सरकारी विभागों में खर्च की कमी को व्यावहारिक रूप देते रहे, पूंजीपतियों से चन्दा लेने के पक्ष में कभी नहीं रहे। मार्क्सवादी न होते हुए भी मार्क्स के इस कथन के समर्थक रहे कि पूंजी के साथ प्रभाव भी ग्रहण करना पड़ता है।

अतः चुनाव प्रचार के लिए धन का अभाव होते हुए भी मिल मालिकों से चन्दा लेने के विरोधी रहे। सिम्पिल लिविंग और हाई थिंकिंग के साक्षात् अवतार, गृहमन्त्री एवं प्रधानमंत्री होते हुए भी अपने बंगले में भी एक कमरे में कालीन बिछाकर बैठते और सामने छोटी मेज रखकर लिखते थे। चौधरी चरणसिंह साहब एक साधारण ग्रामीण की भांति खद्दर की धोती, कुर्ता, सिर पर गांधी टोपी और सादी जूती पहनते थे।

चौधरी चरणसिंह जी का वंश परिचयराजा नाहरसिंह, बल्लबगढ़

चन्द्रवंश में शिवि गोत्र वैदिक कालीन जाट गोत्र है। इसी शिवि गोत्र के जाट भटिण्डा क्षेत्र में आबाद थे। इसी शिवि गोत्र का एक जाट सरदार गोपालसिंह जो कि भटिंडा के निकट गांव तिब्बत (तिरपत) के रहने वाले थे, अपने वंशजों के साथ वहां से चलकर सन् 1705 में बल्लबगढ़ के उत्तर में 3 मील की दूरी पर Sihi गांव में आकर आबाद हो गया।

गोपालसिंह अपनी शक्ति के बल पर बल्लभगढ़ को अपनी राजधानी बनाकर उस क्षेत्र का राजा बन बैठा। राजा गोपालसिंह तथा उसके वंशजों ने यहां आकर अपने शिवि गोत्र के स्थान पर अपने को तिब्बत (तिरपत) गांव के नाम पर तेवतिया प्रसिद्ध कर दिया। फरीदाबाद में उस समय मुग़लों की ओर से मुर्तिज़ा खां हाकिम था।

उसने भयभीत होकर गोपालसिंह को फरीदाबाद परगने का चौधरी चरणसिंह बना दिया। राजा गोपालसिंह की मृत्यु होने के बाद उसका पुत्र चरनदास इस रियासत का राजा बना और फिर उसका पुत्र बलराम, महाराजा सूरजमल भरतपुर नरेश की सहायता से बल्लबगढ़ परगने का शासक हुआ। यह घटना सन् 1747 ई० की है। बलराम ने बल्लबगढ़ में एक सुदृढ़ किला बनाया और अपने राज्य की शक्ति को बढ़ाया। उसी राजा बलराम के नाम से यह बल्लबगढ़ प्रसिद्ध हुआ।

29 नवम्बर, 1753 में राजा बलराम तेवतिया की मृत्यु हो गई। महाराजा सूरजमल ने उसके पुत्र बिशनसिंह और किशनसिंह को बल्लबगढ़ का शासक बना दिया। वे 1774 तक यहां पर शासक रहे। इसी वंश में वीर योद्धा राजा नाहरसिंह बल्लबगढ़ का नरेश हुआ। सन् 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध, जो अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा गया, के समय राजा नाहरसिंह की शक्तिशाली सेना ने दिल्ली के दक्षिण तथा पूर्व की ओर से अंग्रेजी सेना को दिल्ली में प्रवेश नहीं होने दिया।

अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये। इस पर अंग्रेज सेनापति ने भी कहा “दिल्ली के दक्षिण पूर्वी भाग में राजा नाहरसिंह की जाट सेना के मोर्चे लोहगढ़ हैं, जिनको तोड़ना असम्भव है।” अंग्रेजों ने इस वीर योद्धा राजा नाहरसिंह को धोखे से पकड़ लिया और चांदनी चौक में फांसी पर लटका दिया। (पूरी जानकारी के लिए देखो, सप्तम अध्याय, सन् 1858 ई० के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में जाटों का योगदान, प्रकरण।)

राजा नाहरसिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने बल्लबगढ़ पर अधिकार कर लिया और यहां से तेवतिया जाटों का राज्य समाप्त कर दिया। बल्लबगढ़ से जाकर तेवतिया जाटों ने भटौना गांव में भटौना नाम की एक नई रियासत की स्थापना की। यह भटौना गांव जिला बुलन्दशहर में है। इस भटौना से तेवतिया जाटों ने चारों ओर जाकर अपनी वंश वृद्धि की। अब ये जाट तेवतिया के साथ भटौनिया नाम से कहे जाते हैं। क्योंकि इनके 60-70 गांव भटौना गांव से निकल कर बसे थे। (अधिक जानकारी के लिए देखो, नवम अध्याय, तेवतिया/भटौनिया जाटों का बल्लबगढ़ एवं भटौना राज्य, प्रकरण)।चौधरी चरणसिंह के पिता श्री मीरसिंह और माता श्रीमती नेत्रकौर

चौधरी चरणसिंह के दादाजी बदामसिंह इसी तेवतिया जाट राज्य घराने के थे जो भटौना गांव में बसे थे। इनका परिवार भटौना में कई वर्ष तक रहा। चौ० बदामसिंह के पांच पुत्र थे जिनके नाम – लखपतिसिंह सब से बड़ा, बूटासिंह, गोपालसिंह, रघुवीरसिंह और मीरसिंह सबसे छोटा था। चौ० मीरसिंह अपने परिवार वालों के साथ भटौना से नूरपुर गांव जिला मेरठ में जाकर आबाद हो गया। उस समय उनकी आयु 18 वर्ष की थी।

इसी गांव नूरपुर में 23 दिसम्बर 1902 को चौ० मीरसिंह के यहां एक नूर का जन्म हुआ जिसका नाम चौधरी चरणसिंह रखा गया1। चौ० मीरसिंह एक गरीब किसान था, जो मकान बनाने में असमर्थ होने के कारण एक छप्पर में रहता था। जब बालक चौधरी चरणसिंह की आयु 6 वर्ष की थी तब उनके पिता चौ० मीरसिंह को गांव भूपगढ़ी जिला मेरठ में जाना पड़ा। यहां पर चौ० मीरसिंह के यहां चार बच्चे और हुए जिनके नाम – श्यामसिंह, मानसिंह, पुत्री रामदेवी और रिसालकौर थे।

ये चौधरी चरणसिंह के दो भाई और दो बहनें थीं। इन बच्चों के जन्म के बाद चौ० मीरसिंह को पुनः स्थान बदलना पड़ा और वे अपने परिवार के साथ मेरठ के ही ग्राम भदौला में आ बसे। यह चौ० मीरसिंह की अन्तिम निवास यात्रा थी। इसी गांव भदौला में चौ० मीरसिंह के भाई आबाद थे, वे इनके साथ मिलकर रहने लगे।

जाट गंगा का इतिहास

चौ० मीरसिंह के पास इस गांव में केवल 15 एकड़ जमीन (मेरठ के एक सौ बीघे) थी, जिसमें से 5 एकड़ जमीन चौ० मीरसिंह के हिस्से में आती थी। यह सामान्य किसान परिवार में पले। अतः गरीबी को और ग्रामीण किसान जीवन को निकट से परखा। बाल्यकाल से पिता के साथ खेती में कार्य किया अतः मिट्टी में लिपटे हाथ और पसीने की कीमत भलीभांति पहचानी।

चौधरी चरणसिंह की शिक्षा प्राप्ति

चौ० चौधरी चरणसिंह के ताऊ जी लखपतिसिंह इनसे बहुत प्यार रखते थे। अतः इन्होंने ही चौधरी चरणसिंह की उच्च शिक्षा का सब खर्च अपने पास से दिया। इनके गांव में स्कूल न होने के कारण इनको निकट के गांव जानी के स्कूल में दाखिल करवा दिया। प्रतिदिन घर जाते तथा कृषि कार्यों में पिताजी के साथ हाथ बंटाते। उस स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पास करने पर चौधरी चरणसिंह को गवर्नमेन्ट कालिज मेरठ में दाखिल कराया गया। आपने वहां से 1919 में मैट्रिक तथा 1921 में इण्टर की

1. चौ० चरणसिंह की माता जी का नाम श्रीमती नेत्रीदेवी था।

परीक्षा पास की। सन् 1923 में आगरा कॉलिज से बी० एस० सी० तथा 1925 में एम० ए० (इतिहास) की उपाधि प्राप्त की। तथा एल० एल० बी० की सन् 1926 में उपाधि प्राप्त की।

चौधरी चरणसिंह को गरीबों और किसानों के उत्थान एवं उन्नति का ध्यान सदा रहता था। अतः इसी हेतु उन्होंने सन् 1928 में गाजियाबाद में वकालत आरम्भ कर दी। यहां पर आपने किसानों के मुकदमों के फैसले कराये, उनको आपस में लड़ाई झगड़ा न करने और झगड़ों को आपसी बातचीत तथा पंचायती तौर से सुलझाने की शिक्षा दी। उनका किसानहित की दिशा में यह पहला कदम था। यही कार्य चौ० सर छोटूराम जी ने पंजाब में करके किसानों को समृद्ध बनाया।

चौ० चरणसिंह का विवाह व सन्तान

चौधरी चरणसिंह और पत्नी श्रीमती गायत्रीदेवी

हरयाणा प्रान्त के जिला सोनीपत में ग्राम कुण्डलगढ़ी में एक प्रतिष्ठित जटराणा गोत्र के जाट परिवार में चौ० गंगारामजी की पुत्री गायत्री देवी के साथ, 4 जून 1925 को, जब वह एम० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे, चौधरी चरणसिंह का विवाह कर दिया गया। श्रीमती गायत्री देवी जालन्धर कन्या विद्यालय की मैट्रिक पास अत्यन्त मृदुभाषी, सुशील और चतुर महिला है।

वह चौधरी चरणसिंह के गांव में रहकर परिवार का कृषि आदि का प्रत्येक कार्य देखती रही। पढ़े लिखेपन का बनावटीपन उनमें लेशमात्र भी नहीं है।

ग्रामीण किसानों की हर समस्या को सुनना और उनके उचित निराकरण का प्रयास करना उनके स्वभाव में निहित है। जब देश के कोने-कोने से आये दल के कार्यकर्त्ता चौधरी साहब से मुलाकात नहीं कर पाते या किसी कारण निराश होकर जाते तो मात्र माताजी गायत्री देवी ही उनकी आशा का केन्द्र होती थी।

वह अब तक भी कार्यकर्त्ताओं के बीच घिरी देखी जा सकती हैं। वह अनेकों की समस्याओं को सुलझाती हैं और अनेकों को धैर्य व साहस का पाठ पढ़ाती हैं।

माताजी अपने जीवन में दो बार विधान सभा की सदस्या क्रमशः ईंगलास (जिला अलीगढ़]] और गोकुल (जिला मथुरा) से चुनी गयीं। फिर कैराना (मुजफ्फरनगर) से लोकसभा की सदस्या चुनी गई।

श्रीमती गायत्री देवी ने चौधरी चरणसिंह को ऊंचे पद तक पहुंचाने में अपना आवश्यक योगदान दिया। जीवन के साथी होने के नाते वह अपने पति को प्रामाणिक आवश्यकता पड़ने पर सूचित करती थीं। दो अवसरों पर गायत्री देवी ने चौधरी साहब पर उचित समय पर, उचित निर्णय लेने के लिए, अपना प्रभाव डाला।

पहला, जब सन् 1965 में चौ० साहब ने कांग्रेस पार्टी से त्यागपत्र दिया। दूसरे, जब वे देसाई सरकार में वरिष्ठ उपप्रधानमन्त्री एवं आर्थिक (Finance) मन्त्री थे, देसाई सरकार से त्यागपत्र दिया। गायत्री देवी केवल चौधरी साहब की भक्तिपूर्वक पत्नी ही न थी बल्कि उनके प्रधानमन्त्री कार्यों में अपना बड़ा सहयोग प्रदान किया। उसने सदा अपने पति के स्वास्थ्य का ध्यान रखा।

यदि चौधरी चरणसिंह और गायत्री देवी की तुलना महाराजा सूरजमल व महारानी किशोरी से की जाए तो उचित होगा।

श्रीमती गायत्री देवी ने अपनी कोख से चौधरी चरणसिंह के घर पांच पुत्रियों और एक पुत्र को जन्म दिया जो सभी शादीशुदा हैं। चौधरी चरणसिंह ने अपने आर्यसमाजी सिद्धान्तों के अनुसार अपनी दो पुत्रियों की अन्तर्जातीय शादी कराकर आर्यसमाजी कट्टरपन का परिचय दिया है। स्वयं

को कभी जातिवाद के घेरे में कैद नहीं किया और अपनी ईमानदारी और नेकनीयती के समक्ष जाति या धर्म को आड़े नहीं आने दिया। यद्यपि देश के कुछ कुत्सित मनोवृत्ति के लोग और निकृष्ट प्रकार के राजनीतिज्ञ उनके ऊपर जातिवाद का आरोप थोपने का पूर्णतया निष्फल प्रयास करते रहे हैं।

चौधरी साहब जब गाजियाबाद में वकालत कर रहे तो उनके घर का रसोइया एक सामान्य हरिजन था। वे कहा करते थे कि मुझे जाट जाति में जन्म लेने का गौरव है लेकिन यह मेरी इच्छा से नहीं हुआ। बल्कि ईश्वर की कृपा से हुआ है। मेरे लिए भारतवर्ष में निवास करने वाले सभी जातियों के मनुष्य एक समान हैं।

चौधरी साहब को जाट परिवारों से कहीं अधिक यादव, राजपूत, लोधे, कुर्मी, गुर्जर, मुसलमान और पिछड़े वर्ग में अधिक सम्मान प्राप्त था। माताजी गायत्री देवी को सन् 1978 में यादव महासभा के अखिल भारतीय सम्मेलन बम्बई में मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया था।

यही नहीं, अनेक ब्राह्मण एवं वैश्य परिवारों में जहां जातीय कट्टरपन नहीं है, चौधरी चरणसिंह जी की एक आदर्शवादी सिद्धान्तनिष्ठ नेता और विचारशील तथा संघर्षशील, राजनैतिक व्यक्ति के रूप में मानो पूजा होती थी।

चौधरी चरणसिंह की सबसे बड़ी पुत्री सत्या का विवाह एक विद्वान् प्रो० गुरुदत्तसिंह सोलंकी के साथ हुआ। वह आगरा के पास कस्बा कागारौल के मूल निवासी थे। वह खेरागढ विधान सभा क्षेत्र (जिला आगरा) से उत्तर प्रदेश विधानसभा के एम० एल० ए० चुने गये और इसी सदस्य के रूप में ही उनका मार्च 1984 ई० में निधन हो गया।डॉ जयपाल सिंह और पत्नी वेदवती, पुत्री चौधरी चरणसिंह, 1959

दूसरी पुत्री वेद का विवाह, राम मनोहर लोहिया हस्पताल के एक योग्य डाक्टर जे० पी० सिंह के साथ हुआ। तीसरी पुत्री ज्ञान, जो मेडिकल ग्रेजुएट है, सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर जेनोआ में अपने पति के पास चली गई। वह आई० पी० एस० अफसर है। चौथी पुत्री सरोज का विवाह श्री एस० पी० वर्मा के साथ हुआ है जो कि उत्तरप्रदेश में गन्ना विभाग में अफसर है। इनका यह अन्तर्जातीय विवाह है।अजीतसिंह

चौधरी चरणसिंह का एक ही पुत्र अजीतसिंह है जिसने यन्त्रशास्त्र विश्वविद्यालय की उपाधि धारण की है। वह अमेरिका में नौकरी करते थे। वहां से त्यागपत्र देकर भारत आ गये और लोकदल के प्रमुख मन्त्री (General Secretary) चुने गये। आप लोकसभा के सदस्य भी हैं।

चौधरी चरणसिंह लोकदल के अध्यक्ष थे और हेमवती नन्दन बहुगुणा उपाध्यक्ष थे। चौधरी चरणसिंह की भयंकर बीमारी के समय चौ० अजीतसिंह और बहुगुणा के मध्य मतभेद हो गया जिससे लोकदल के दो धड़े हो गये। चौ० चरणसिंह के स्वर्गवास होने पर बहुगुणा को लोकदल अध्यक्ष बनाया गया। परन्तु अजीतसिंह ने अपना अलग लोकदल बना लिया। इस तरह लोकदल दो भागों में विभाजित हो गया। एक का नाम लोकदल (ब) है जिसका अध्यक्ष बहुगुणा है और दूसरे का नाम लोकदल (अ) है जिसका अध्यक्ष चौ० अजीतसिंह है। चौ० अजीतसिंह किसानों का एक नेता है, विशेषकर उत्तरप्रदेश में। उनके भारत के किसानों के योग्य नेता बनने की सम्भावना है।

चौ० अजीतसिंह का विवाह राधिका से हुआ जिनके तीन बच्चे हैं।

चौधरी चरणसिंह का राजनीति में प्रवेश

चौधरी चरणसिंह ने सन् 1928 में गाजियाबाद में वकालत शुरु की और वहां से सन् 1939 में

मेरठ आ गये। चौ० साहब सन् 1929 से 1939 तक गाजियाबाद नगर कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे और कई अन्य सेवायें भी कीं। आप सन् 1930 में गोपीनाथ ‘अमन’ के साथ नमक सत्याग्रह में शामिल हो गये और एक बड़े समुदाय का नेतृत्व करते हुये पकड़े गये। यह आपकी प्रथम जेल यात्रा थी जिसमें 6 माह की सजा हुई।

जेल में रहकर आपने “मंडी बिल” व “कर्जा कानून” नामक पुस्तकें लिखीं। बाहर आने पर “भारत की गरीबी व उसका निराकरण” नामक बहुचर्चित पुस्तक लिखी। “जमींदारी नाशन कानून” जो लागू हुये, इन्हीं की देन है।

उसी समय पंजाब के प्रसिद्ध माल व कृषि मन्त्री चौ० सर छोटूराम आपके सम्पर्क में आये, जिन्होंने इन पुस्तकों के अध्ययन व चौधरी चरणसिंह जी से विचार मंथन किया तथा अपने मंत्रित्वकाल में कर्जा व मंडी कानून लागू किये। आप सन् 1939 में मेरठ गये और वहां जिला बोर्ड के चेयरमैन चुन लिये गये।

उस समय आपने अपने ग्रामीण-क्षेत्रों की सड़कें तथा स्कूलों की हालत ठीक कराई, अनुचित भत्ता लेने वाली प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया, कार्यालय के बाबुओं को समय पर आने के लिये विवश किया और चपरासियों से निजी काम लेने की आदत को छुड़ाया।

सारांश यह है कि इस काल में, किसान तथा आम आदमी का भला करना, कार्य प्रणाली में ईमानदारी तथा निष्ठा भावना का समावेश करना, आपके दो विशेष गुण रहे हैं, जिनके लिये वे हमेशा याद किए जायेंगे।

आपने सन् 1939 से 1948 तक मेरठ जिला कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष, महामन्त्री व अध्यक्ष पदों पर रहकर कार्य किया। उस समय आपकी जिले की राजनीति पर धाक थी। अतः पं० गोविन्द वल्लभ पंत के सम्पर्क में आये और उनके काफी नजदीक आ गये।

चौधरी चरणसिंह ने गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता की लड़ाई प्रारम्भ की। आप द्वितीय महायुद्ध के आरम्भ में मेरठ सत्याग्रह समिति के मन्त्री चुने गये थे इसीलिए आप समस्त मण्डल के गांवों के दौरे पर निकल पड़े और किसानों को स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के लिये उत्साहित किया। 28 अक्तूबर 1940 को किसानों के एक जत्थे के साथ जिलाधीश निवास पर धरना दिया जिसमें आपको गिरफ्तार किया गया और डेढ़ वर्ष के कारावास की सजा दी तथा जुर्माना किया गया।

अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन में स्वतन्त्रता प्राप्ति में सक्रिय योगदान दिया, जिसके कारण आपको 8 अगस्त 1942 में 2 वर्ष की सजा मिली और सन् 1944 में छोड़ दिया गया। सन् 1944 में चौधरी साहब के भाई श्यामसिंह व भांजे गोविन्दसिंह को बम केस में गिरफ्तार कर लिया गया।

अदालत में मुकदमा चला जिसमें गोविन्दसिंह रिहा हो गया और श्यामसिंह को पांच वर्ष के कठोर कारावास की सजा मिली। चौधरी चरणसिंह अपने कार्य तथा लग्नशीलता एवं लोकप्रियता के कारण सन् 1936, 1946, 1952, 1957, 1962, 1968, 1974 में लगातार छपरौली से विधानसभा के लिए चुने गये।

1977 में पहली बार बागपत क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गये तथा अन्तिम समय तक इसी क्षेत्र से चुने जाते रहे। आप प्रान्तीय सरकार से लेकर केन्द्रीय सरकार के सभी महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे।

प्रान्तीय सरकार में संसदीय सचिव, सन् 1951 में सूचना तथा न्याय मन्त्री, सन् 1952 में कृषि एवं राजस्व मन्त्री, 1959 में राजस्व एवं परिवहन मंत्री, 1960 में गृह तथा कृषि मंत्री, 1962 में कृषि तथा वन मन्त्री, 1966 में स्थानीय निकाय प्रभारी रहे। किसानों के लिए खून पसीना बहाने

वाले किसानों के ‘मसीहा’ ने कांग्रेस की किसान विरोधी नीतियों के कारण कांग्रेस से सन् 1967 में त्यागपत्र दे दिया। 3 अप्रैल 1967 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने। मध्यवर्ती चुनाव के बाद पुनः सन् 1969 में उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने। सन् 1977 से 1978 तक केन्द्र में गृहमंत्री, वित्तमंत्री तथा वरिष्ठ उपप्रधानमंत्री रहे। 28 जुलाई 1979 को केन्द्र में आपके नेतृत्व में साझा सरकार ने शपथ ग्रहण की और इस प्रकार चौधरी साहब देश के पांचवें प्रधानमंत्री बने।

चौधरी चरणसिंह किसानों के लिए पैदा हुए, उन्हीं के लिए जिये तथा अन्त में उन्हीं के लिए समर्पित हो गये। उन्होंने किसानों के लिए जमींदारी उन्मूलन तथा भूमि सुधार कानून बनाकर उन्हें शोषण से मुक्त कराया। सहकारी खेती का विरोध किया एवं चकबन्दी की लाभकारी योजना प्रदान की।

इन सब घटनाओं का अगले पृष्ठों पर विस्तार से वर्णन किया जाएगा।

जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण

चौधरी चरणसिंह का सक्रिय राजनीतिक जीवन

सन् 1936 में जब अंग्रेजों ने परिषद् के चुनाव कराये तो चौधरी चरणसिंह, खेकड़े के एक बड़े जमींदार चौधरी दलेराम, जो अंग्रेज समर्थित था, के विरुद्ध छपरौली (जिला मेरठ) चुनाव क्षेत्र से मैदान में उतरे तथा अपने विरोधी की जमानत जब्त कराकर विजयी हुये। आप इसी क्षेत्र से लगातार सन् 1977 तक 40 वर्ष उत्तर प्रदेश असेम्बली के सदस्य रहे और इस तरह से भारतवर्ष में एक रिकार्ड स्थापित किया।

सन् 1936 के चुनाव में भारतवर्ष के कई प्रान्तों में कांग्रेस सरकार स्थापित हुई, किन्तु अंग्रेजों के विरोध के फलस्वरूप तमाम कांग्रेस सरकारों ने इस्तीफे दे दिये।

आप सन् 1936 में विधान मंडल के गैर सरकारी सदस्य के रूप से उत्तर प्रदेश के राजनैतिक रंगमंच पर उतरे। सन् 1946 में धारा सभाओं के चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पं० गोविन्द वल्लभ पंत ने श्री चन्द्रभान गुप्त, सुचेता कृपलानी, लालबहादुर शास्त्री के साथ चौधरी चरणसिंह को भी सचिव बनाया। चौधरी साहब सन् 1948 से 1956 तक प्रान्तीय कांग्रेस पार्टी के जनरल सेक्रेट्री रहे और 1946 से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे और 1946 से 1951 तक स्टेट पार्लियामेन्ट्री बोर्ड के सदस्य रहे।

चूंकि 1950 में चौधरी चरणसिंह जी अपनी समस्त योग्यताओं तथा क्षमता के बावजूद भी केवल अपनी ईमानदारी व स्वाभिमान के कारण स्थापित नहीं हो पा रहे थे, उस समय प्रदेश की राजनीति श्री पुरुषोत्तम दास टण्डन तथा उनके अनुयायियों चन्द्रभानु गुप्त तथा मोहनलाल गौतम के हाथ में थी, जिनके नाम को जनता ईमानदारी के साथ भूल से भी नहीं जोड़ सकती थी, अतः चौधरी साहब की उनसे पटरी बैठाने की उम्मीद करना भी गलत था।

सन् 1951 में चौधरी चरणसिंह को प्रथम बार सूचना व न्याय मंत्री के रूप में मंत्रीमण्डल में आने का अवसर प्राप्त हुआ। जब 1952 में भारतीय गणराज्य के प्रथम चुनाव हुये और नया मंत्रिमण्डल बना तो श्री पंत केन्द्र में गृहमंत्री होकर चले गए और डा० सम्पूर्णानन्द उ० प्र० के मुख्यमंत्री बनाये गये तो चौ० चरणसिंह को कृषि एवं राजस्व मंत्रालय दिया गया।

किन्तु वह निर्भीक स्पष्टवादी व स्वाभिमानी होने के कारण डा० सम्पूर्णानन्द जैसे सबल अहमयुक्त व्यक्ति के कतिपय विचारों से सहमत न हो सके और कुछ समय के बाद मंत्रीमण्डल से त्यागपत्र दे दिया।

सन् 1957 में चुनाव हुए। आपके विरोध में आपके खानदानी भतीजे चौ० विजयपालसिंह

एडवोकेट को खड़ा कर दिया गया जो जाटों के बड़े प्रिय और पुराने एम० एल० ए० थे। किन्तु विजय चौधरी जी की हुई। चन्द्रभानु गुप्त मंत्रीमण्डल में 1959 में आपको राजस्व एवं परिवहन मंत्री, 1960 में गृह तथा कृषि मंत्री मनाया गया सन् 1962 में चौधरी चरणसिंह सुचेता कृपलानी मंत्रिमण्डल में कृषि तथा वन मंत्री रहे।

लेकिन इसी दौरान में अपने व्यक्तित्व के कुछ गुणों के कारण जनवरी 1959 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में नेहरू जी से किसानों के हित में संघर्ष कर बैठे तथा सहकारी खेती प्रस्ताव को पास न होने दिया। वापिस आकर त्यागपत्र दे दिया। लगभग डेढ़ वर्ष तक मंत्रीमण्डल से पृथक् रहे।

सन् 1967 में जब सारे देश में कांग्रेस का बुरा हाल हो गया तब उत्तरप्रदेश में भी मात्र बहुमत प्राप्त कर सकी थी। उसी नेता पद के चुनाव हेतु चन्द्रभानु गुप्त के विरोध में चौधरी चरणसिंह मैदान में जम गये किन्तु कांग्रेस हाईकमांड के अनुरोध पर अपना नाम वापिस ले लिया, किन्तु कुछ ऐसे चेहरों को मंत्रीमण्डल में शामिल न करने की शर्त रखी जो उस समय जनता की निगाह में भ्रष्ट तथा बेईमान साबित हो चुके थे।

उनमें से अधिकांश मुख्यमंत्री श्री गुप्त के दाएं-बाएं हाथ थे, अतः बाद में उन्हें मंत्रीमंडल में स्थान दिया गया और चौधरी चरणसिंह की शर्त को महत्त्व न दिया।

इस प्रकार स्वाभिमानी नेता ने जब यह अनुभव किया कि अब प्रदेश कांग्रेस भ्रष्टाचारियों, कालाबाजरियों और उनके चाटुकारों के हाथों की कठपुतली बनती जा रही है तथा केन्द्रीय स्तर पर भी कोई ऐसा नेता नहीं जो सत्य को सत्य कहने का साहस करे। अतः चौधरी चरणसिंह ने अप्रैल 1967 में कांग्रेस से अपना नाता तोड़ लिया।

सर मलिक खिज़र हयात तिवाना

सौभाग्य से उस समय समस्त विरोधी दलों ने संगठित होकर चौधरी साहब से नेतृत्व करने का अनुरोध किया, तभी 16 अन्य वरिष्ठ कांग्रेस विधायक कांग्रेस से त्यागपत्र देकर चौधरी साहब के साथ जुड़ गये और कांग्रेस के गुप्ता मंत्रीमण्डल का पतन हो गया।

चौधरी चरणसिंह को प्रथम बार प्रदेश का मुख्यमंत्री 3 अप्रैल 1967 को बनाया गया। किन्तु अपने स्वाभिमान के गुणों को वह छुपा न सके और दलों की आपसी खींचातानी से तंग आकर अपना तथा मंत्रीमण्डल का त्यागपत्र राज्यपाल को 17 फरवरी 1968 को प्रस्तुत करते हुए नये चुनाव कराये जाने की सिफारिश की।

अप्रैल 1967 में ही कांग्रेस से त्यागपत्र देकर अपने एक नये दल जन कांग्रेस की स्थापना की जिसमें 16 विधायक थे। किन्तु आपकी सिफारिश पर जब 1969 में मध्यावधि चुनाव कराये गये उससे पूर्व ही आपने जन कांग्रेस से भारतीय क्रांति दल (BKD) नामक संगठन को जन्म दिया और आपकी प्रतिभा के संबल पर ही इस दल को विधान सभा में 101 स्थान प्राप्त हुए।

यह उनकी बढ़ती हुई लोकप्रियता का ज्वलंत उदाहरण था। इस समय कांग्रेस दो धड़ों ‘इण्डीकेट’ व “सिण्डीकेट” में बंट गयी और मौकापरस्त तथा पूंजीपतियों के एजेण्ट चन्द्रभानु गुप्त के अनेक अनुरोधों तथा चालों के बावजूद भी चौधरी साहब ने उनके साथ सरकार नहीं बनाई। अतः आपने इंदिरा गुट के साथ मिलकर सरकार बनाई।

चौधरी चरणसिंह

चौधरी चरणसिंह ने कांग्रेस के भ्रष्ट शासन को देश से उखाड़ फेंकने का विचार किया जिससे देश का उत्थान हो सके।

इसी उद्देश्य के मातहत आपने अपने राजनैतिक ध्रुवीकरण के चक्र को आगे बढ़ाया और इसी के प्रतिफलस्वरूप 29 अगस्त, 1974 को आपका स्वप्न कुछ अंशों में पूरा हुआ जब भारतीय क्रांति दल में स्वतन्त्र पार्टी, संसोपा, उत्कल कांग्रेस, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक दल, किसान मजदूर पार्टी तथा पंजाब खेतीबाड़ी यूनियन, इन सात दलों को मिलाकर भारतीय लोकदल नामक दल को जन्म दिया।

चौधरी साहब को सर्वसम्मति से इस दल का अध्यक्ष बनाया गया तथा श्री पीलू मोदी, राजनारायण, बलराज मधोक, रामसेवक यादव, बीजू पटनायक, चौधरी देवीलालचौ० चांदराम, प्रकाशवीर शास्त्री, कुम्भाराम आर्य, रविराय और कर्पूरी ठाकुर जैसे जंगजू और जुझारू नेता इस दल के साथ जुड़ गये।

इसके बाद चौधरी साहब विरोधी दल के नेता के रूप में विधान सभा की गरिमा बढ़ाते रहे और आपकी लोकप्रियता उत्तर प्रदेश के कोने-कोने के बाद हरयाणा, पंजाब, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, जम्मू कश्मीर से लेकर समग्र भारत में फैलती गयी और देश के किसान आपके व्यक्तित्व से जुड़ते चले गये और आप ही किसानों के सच्चे नेता माने गये।

जब गुजरात से नौजवान विद्यार्थियों ने एक आंदोलन को जन्म दिया और यह प्रलय की ज्वाला बिहार से लेकर सारे देश में फैली तो भारतीय लोकदल (भालोद) ने अपनी अग्रणी भूमिका का पालन किया।

उत्तर भारत में बाबू जयप्रकाशनारायण के बाद दूसरा चौधरी चरणसिंह का ही नाम था जो इस आन्दोलन में हर व्यक्ति की जबान पर था। यदि सच पूछा जाये तो आज तक के परिवर्तन के सूत्रपात करने का श्रेय मात्र भालोद और उसके नेता चौधरी चरणसिंह को ही प्राप्त है।

क्योंकि यदि जब श्री चौधरी चरणसिंह, राजनारायण को बल देकर राजनीति के आसन पर न बिठाते तो हाईकोर्ट में इन्दिरा का पिटीशन भी न जाता और इन्दिरा पिटीशन न हारती तो आपात स्थिति भी लागू न होती और वह लागू न होती तो जनता पार्टी के गठन के लिए परिस्थितियां पैदा न होतीं, न ही सरकार बनने की यह स्थिति पैदा होती।

अतः चौधरी चरणसिंह का व्यक्तित्व और राजनारायण का कृत्य आज तक हुए परिवर्तन के जनक हैं। इसी प्रकार जनता पार्टी के गठन के लिए चौधरी चरणसिंह ने अपने दल का हर बलिदान स्वीकार करके तथा अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगा करके भी भूमिका तैयार की और उसे पूरा कराया।

नवीन गुलिया एक साहसी व्यक्तित्व – Navin Gulia

चौधरी चरणसिंह की सन् 1937 से 1967 तक जनता की सेवायें

चौधरी चरणसिंह 1937 में विधानसभा के लिये निर्वाचित हुए और 1967 तक कांग्रेस में रहे। इस दौरान आपने उत्तर प्रदेश में अनेक विभागों में कार्य किया और जनसेवा को अपना प्रमुख लक्ष्य माना। आपकी विभिन्न विभागों में रहकर की गयी सेवाओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है –

(क) कृषि एवं राजस्व मन्त्री

  • 1. चौधरी साहब ने सन् 1939 में ऋण विमोचन विधेयक पास कराया, जिससे किसानों के खेतों की नीलामी बच गई और सरकार के ऋणों से किसानों को मुक्ति मिली।

चौधरी सर छोटूराम ने पंजाब में ऐसा ही कानून बनाकर लाखों किसानों को लाभ पहुंचाया। सर छोटूराम ने साहूकारों के ऋणों से पंजाब के किसानों व गरीबों को मुक्त कराया और उनकी प्रत्येक सम्पत्ति को कुर्क होने से बचाया तथा अन्य कई प्रकार के लाभ किसानों को कानून द्वारा दिये।

  • 2. सन् 1939 में ही चौधरी चरणसिंह ने किसान सन्तान को सरकारी नौकरियों में 50% आरक्षण दिलाने के पक्ष में लेख लिखे; कांग्रेस दल की बैठकों में प्रस्ताव रखा, लेकिन तथाकथित राष्ट्रवादी कांग्रेसियों के विरोध के कारण, इस उद्देश्य में सफलता नहीं मिली। वे निरन्तर किसान के हित में सोचते थे। उनका “आर्थिक दर्शन” (पुस्तक) इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है।

नोट –सन् 1961 में की गई जांच के अनुसार भारतवर्ष में कुल 1347 आई. सी. एस. (ICS) और आई. ए. एस. (IAS) में केवल 155 यानी 11.5% किसान वर्ग के थे।

  • 3. सन् 1939 में ही चौधरी साहब ने कांग्रेस विधायक दल के सामने एक प्रस्ताव रखा था कि सरकारी नौकरी के लिए साक्षात्कार के समय हिन्दू उम्मीदवारों से जाति न पूछी जाय, केवल पूछा जाय कि वह अनुसूचित जाति का है अथवा नहीं?
  • आपका यह कार्य इस बात का प्रतीक है कि वे हरिजन तथा अनुसूचित जाति के लोगों की उन्नति के प्रश्न पर केवल सैद्धान्तिक दृष्टि से नहीं, वरन् व्यावहारिक स्तर पर सोचते रहे हैं। हिन्दुओं में ऊंच-नीच के भेद मिटाने के उद्देश्य से, आपने पं० नेहरू को पत्र लिखा था और इसकी व्यवस्था करने का आग्रह किया था कि सरकारी सेवाओं में प्रवेश की एक शर्त हरिजन कन्या से विवाह करना लगाई जाए।
  • 4. दिसम्बर 1939 में आपने भूमि उपयोग बिल तैयार किया जिसके अन्तर्गत प्रदेश के किसानों को इज़ाफा लगान तथा बेदखली के अभिशाप से मुक्त करने का; कृषि जोतों के स्वामित्व का अधिकार ऐसे काश्तकारों या किसानों को दिये जाने का प्रस्ताव रखा गया, जो सरकारी कोष में वार्षिक लगान के दस गुने के बराबर की रकम अपने भूस्वामी के नाम जमा करने के लिये तैयार थे। धारा सभा के सदस्यों में उसे वितरित कराया।
  • सभा में पेश करने का नोटिस भी दिया गया। बाद में यही प्रस्ताव भूमि सुधार कार्यक्रम का आधार बना। यह उद्देश्य 1939 में पूरा न होकर सन् 1952 में हुआ जब “जमींदारी उन्मूलन अधिनियम” पास कराने में सफल हुए थे। “जमींदारी उन्मूलन” से उत्तर प्रदेश के किसानों को अनुमान से भी अधिक लाभ चौधरी साहब की कृपा से हुआ।
  • 5. सन् 1939 में ही चौधरी चरणसिंह ने एक प्राईवेट मेम्बर के तौर पर विधान सभा में एक “कृषि उत्पादन मार्केटिंग बिल” (Agriculture Produce Marketing Bill) प्रवेश किया। उन्होंने एक लेख जिसका नाम “Agriculture Marketing” था, लिखा, जो कि 31 मार्च, 1932 के Hindustan Times of Delhi में छपा था।
  • इसका उद्देश्य किसानों की पैदावार को व्यापारियों (महाजनों) द्वारा की जाने वाली मनमानी लूट से बचाना था। यह सभी प्रान्तों ने अपना लिया। परन्तु सर छोटूराम ने पंजाब में यह सबसे पहले लागू किया। उत्तर प्रदेश में यह कानून सन् 1964 में चौधरी साहब के प्रयत्न से लागू हुआ। इस उपाय का, जो कि किसानों के लिए लाभदायक था, व्यापारी वर्ग तथा शहरी तत्त्वों ने यह दलील देकर दृढ़ता से विरोध किया, कि चूँकि किसान धनवान एवं शिक्षित हैं, अतः वे व्यापारियों के विपरीत स्वयं अपना बचाव कर सकते हैं इसलिए यह उपाय अनावश्यक है।

भूमि सुधार के क्षेत्र में उत्तर प्रदेश ने सारे राष्ट्र को मार्ग दिखाया इस सन्दर्भ में सभी उपलब्धि जो चौधरी साहब के द्वारा हासिल की गई, की विस्तृत विवेचना करना सम्भव नहीं किन्तु संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है –

  • 6. 1 जुलाई 1952 को कानून संग्रह में शामिल “जमींदारी उन्मूलन भूमि सुधार अधिनियम” के अन्तर्गत, हालांकि उत्तर प्रदेश के सभी मैदानी भागों की सब भूमि का स्वामित्व सरकार के हाथों चला गया, फिर भी सभी पुराने भू-स्वामियों या जमींदारों को भूमिधर घोषित किया गया। तदनुसार उन्हें स्वयं करने वाली खेती तथा उससे सम्बद्ध कुंआं, वृक्ष, मकान आदि पर उसका अधिकार हो गया। इस प्रकार सभी काश्तकारों को उन जोतों का “सीरदार” घोषित किया जिन्हें वे जोत रहे थे। उन्हें कृषि कार्यों बागवानी तथा पशुपालन के लिए भूमि उपयोग का पूरा अधिकार दिया गया, किन्तु हस्तान्तरण का अधिकार सीरदारों को नहीं मिला, किन्तु अपने लगान का दस गुना के बराबर की रकम सरकारी खाते में जमा कर दी थी, उनको लगान में 50% कटौती का हकदार बनाया गया और उनकी तरक्की करके “भूमिधर” का दर्जा दिया गया। यह योजना राष्ट्रीय स्तर पर अपना ली गई।
  • 7. ऐसे सभी ग्रामवासियों को जो काश्तकार थे, श्रमिक, शिल्पी थे, को अपने मकानों, कुओं तथा आबादी में अपने वृक्षों से संलग्न भूमि का स्वामी घोषित किया गया, जिसकी कोई कीमत उन्हें नहीं देनी पड़ी। इस योजना से तमाम गरीब खेतीहर मजदूर व हरिजन, जमींदारों के बेदखली के डण्डे से बच गये। कृषि योग्य भूमि को छोड़कर शेष भूमि सरकार ने अपने नियन्त्रण में लेकर ग्राम पंचायतों को उनका विकास व प्रबन्ध करने की जिम्मेदारी सौंप दी तथा “ग्राम समाज पुस्तिका” प्रकाशित करके ग्राम पंचायतों के अधिकार, कर्त्तव्य भी व्यवस्थित कर दिए। इस प्रकार सामन्तवाद के सभी बन्धनों से ग्रामों को मुक्त कर दिया गया। यह क्रान्तिकारी परिवर्तन देश के लिए कम्युनिज्म के समान एक नया चमत्कार था, जो चौधरी चरणसिंह द्वारा किया गया था।
  • 8. पुनः अपनी गहन अध्ययनशीलता के आधार पर चौधरी चरणसिंह जी को यह महसूस हुआ कि पुराने जमींदार पुनः जमीन खरीदकर या अन्य गलत तरीकों से अपने पास संग्रहीत कर लेंगे। अतः यह प्रावधान किया कि भविष्य में किसी भी परिवार के पास (पति-पत्नी व नाबालिग बच्चे) 12.5 एकड़ से अधिक भूमि नहीं रखी जायेगी तथा जब भी किसी विभाजन के मुकदमे में कचहरी के समक्ष रखी गई जोत का आकार 3¼ एकड़ से अधिक न होगा, कचहरी उसे विभाजित करने की बजाय उसे बेचकर उसकी आय का बंटवारा करने को निर्देशित करेगी।
  • 9. कारखाने, स्कूल, अस्पताल या अन्य सार्वजनिक स्थान के आधे मील की परिधि में कोई जोत के अयोग्य भूमि उपलब्ध है तो कृषि योग्य भूमि को अधिगृहीत नहीं किया जा सकेगा। लगभग 15 वर्ष बाद भारत सरकार ने भी इस नियम का अनुसरण किया।

रघुवंशी जाट गोत्र का इतिहास

  • 10. शहरी क्षेत्रों में जर-ए-चहरूम की प्रथा भी चौधरी साहब ने ही समाप्त की, तदनुसार भू-स्वामी या पट्टादाता क्रेता या विक्रेता से उसकी कीमत का एक-चौथाई भाग वसूल करता था, समाप्त हो गया।
  • 11. जमींदारी उन्मूलन तथा भू-स्वामी काश्तकार सम्बन्धों की समाप्ति और सारे राज्य में कृषि की समानता लाये जाने से अब जोतों की चकबन्दी का कार्य आसान हो गया था। अतः चौधरी साहब ने अविलम्ब इसके लिये कानून बना दिया और कर्मचारियों के प्रशिक्षण की व्यवस्था कर दी किन्तु कुछ समाजवादियों व कांग्रेसियों ने इसका डटकर विरोध किया तथा 1959 में चौधरी चरणसिंह के त्यागपत्र के बाद मुख्यमन्त्री सम्पूर्णानन्द ने इसे रद्द कर दिया। किन्तु एक माह के बाद ही राष्ट्रीय योजना आयोग ने इस योजना को स्वीकार किया और सारे देश में लागू कर दिया। 1948 के कृषि आयकर अधिनियम को चौधरी साहब ने रद्द कर दिया। इसके स्थान पर बड़ी कृषि जोतों के कराधान का अधिनियम बनाया जो कि किसानों के लिये वरदान सिद्ध हुआ क्योंकि भ्रष्टाचार व परेशानी से वे बच गये तथा बेईमान बड़े किसानों के लिए आयकर चोरी का रास्ता बन्द हो गया। इस प्रणाली में बागवानी आदि को मुक्त कर वृक्षारोपण का रास्ता खुला रखा गया।
  • 12. एक ओर जमींदारी उन्मूलन व भूमि सुधार अधिनियम लागू किया जा रहा था, दूसरी तरफ प्रदेश के 28,000 पटवारी जो मालगुजारी प्रशासन की आवश्यक कड़ी थे, वेतन वृद्धि तथा अन्य सुविधाओं के लिये आन्दोलन कर रहे थे। चौधरी चरणसिंह ने उन्हें सलाह दी कि जनहित में कुछ समय के लिए आन्दोलन वापिस ले लें या त्यागपत्र दे दें। इस पर जनवरी 1953 में सभी पटवारियों ने सामूहिक रूप से त्यागपत्र दे दिया। चौधरी जी ने स्थिति से निपटने के लिए त्यागपत्र स्वीकार कर लिये और ‘लेखपाल’ नाम से नयी नियुक्तियां कर दीं जिसके लिए उन्हें अनेकों विरोधों का सामना करना पड़ा। किन्तु इसका परिणाम यह हुआ कि आगामी 13 वर्ष तक प्रदेश में कोई सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर नहीं गया।
  • 13. 1954 में कानून संग्रह में भूमि संरक्षण अधिनियम को शामिल किया तथा कानपुर के राजकीय कृषि महाविद्यालय के दो वर्ष के स्नाकोत्तर पाठ्यक्रम में एक पृथक् विषय के रूप में शुरु कर चौधरी साहब पुनः देश के अगुआ बने।

उत्तर प्रदेश में किये गये क्रांतिकारी भूमि सुधारों की सफलता का मूल्यांकन विख्यात कृषि विशेषज्ञ श्री वुल्फ लेजेन्सकी, जिन्हें फोर्ड फाउण्डेशन ने भारत के गहन कृषि कार्यक्रम वाले जिलों का अध्ययन करने भारत भेजा था, के इन शब्दों से किया जा सकता है-“भूमि सम्बन्धी नियम केवल उत्तर प्रदेश में ही सुस्पष्ट और विस्तृत बनाये गये हैं और प्रभावकारी तरीके से इन्हें लागू किया गया है।

वहां लाखों काश्तकारों और उप काश्तकारों को स्वामी बना दिया गया और हजारों ऐसे लोगों को जिन्हें बेदखल कर दिया गया था, उनके अधिकार वापस दिलाये गये।” (पृष्ठ 3 रिपोर्ट प्रेषित योजना आयोग 1963)|

प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरु के सहकारी कृषि प्रस्ताव का विरोध

जनवरी, 1959 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का वार्षिक अधिवेशन नागपुर में स्थापित

हुआ। उस अवसर पर पं० जवाहरलाल नेहरू ने सहकारी कृषि योजना एवं खाद्यान्न का सरकारी व्यापार का प्रस्ताव रखा। उस अधिवेशन में चौधरी चरणसिंह, जो उस समय उत्तरप्रदेश के कांग्रेस मंत्रीमण्डल में राजस्व एवं परिवहन मन्त्री थे, भी उपस्थित थे। चौधरी साहब ने इस प्रस्ताव का बड़े साहस से तर्कानुसार जोरदार शब्दों में खण्डन करके प्रधानमन्त्री नेहरू को हिला दिया।

नागपुर कांग्रेस के इस ऐतिहासिक अधिवेशन की इस घटना की सूचना चौधरी चरणसिंह के विषय में पहली बार राष्ट्रीय समाचार पत्रों के शीर्षक में छपी थी।

चौधरी चरणसिंह ने सहकारी कृषि करने तथा खाद्यान्न का सरकारी व्यापार के विषय में इस कांग्रेस अधिवेशन में दलील देकर एक जोरदार भाषण दिया जिसने नेहरू और उसी जैसे विचार वाले कांग्रेसियों के इस प्रयत्न को नकारा कर दिया।

चौधरी साहब ने वहां पर उपस्थित कांग्रेसी प्रतिनिधियों को सूचित किया कि भूमि को इकट्ठा करने और मजदूरों द्वारा खेती करवाने से पैदावार नहीं बढ़ेगी। अतः यह दोनों योजना हमारे प्रजातन्त्रीय जीवन के विरुद्ध दुष्कर और असफल हैं।

चौधरी चरणसिंह

यह चौधरी चरणसिंह की ही निडरता तथा योग्यता थी कि जिसके सामने बोलने तक की किसी की हिम्मत नहीं थी। नेहरू के उस प्रस्ताव को पास नहीं होने दिया जिससे भारतवर्ष के किसानों की भूमि को उनके पास से छीनी जाने से बचा दिया, जिसके वे मालिक थे। ऐसा करने से चौ० चरणसिंह किसानों के ‘मसीहा’ कहे जाने लगे तथा राष्ट्रीय स्तर के चोटी के नेताओं की श्रेणी में आ गये।

सहकारी कृषि योजना के अनुसार भूमि के वास्तविक मालिक किसान, मजदूरों के तौर पर कृषि कार्य करते और उनके ऊपर सरकारी प्रबन्धकर्त्ता गैर किसान विद्वान् अफसर होते। खेती की पैदावार सरकार के हाथों में आ जाती। समय के अनुसार किसानों की भूमि सरकार के अधीन हो जाती।

सन् 1959 के बाद कई प्रधानमन्त्री, खाद्य मन्त्री तथा कृषि मन्त्री भारत सरकार में रहे, किन्तु आज तक भी देश में सहकारी कृषि एवं अन्न का सरकारी व्यापार का कार्य लागू नहीं हो सका है। इसका श्रेय चौधरी चरणसिंह को है।

कौन थे सर छोटू राम?

चौधरी चरणसिंह ने भूमि सुधार के विषय में देश को मार्ग दिखाया तथा अग्रसर रहे। वे भूमि सुधार कानूनों के विषय में उत्पादक थे तथा उत्तरप्रदेश में जमींदारी समाप्त कानून बनाने में अपूर्व बुद्धि के मनुष्य थे और उन्होंने इनकी इतनी चतुराई से रूपरेखा तैयार की कि न्यायाधीशों द्वारा एक भी नियम अयोग्य नहीं ठहराया गया।

चौधरी साहब हड़तालों के विरुद्ध थे तथा चाहते थे कि प्रत्येक कर्मचारी कारखानों में या बाहर मेहनत से काम करे और धर्मनिष्ठा से अपने कर्त्तव्य का पालन करे। वे सरकारी कर्मचारियों के उपद्रव तथा अनुशासनहीनता को सहन नहीं कर सकते थे।

ऐसी हालत में वे कठोरता से व्यवहार करते थे। उनके लम्बे समय तक राजनीतिक पद पर रहने के दौरान में कोई भी व्यक्ति या उनका विरोधी भी उनको दोषी नहीं बता सकता, यह उनके उच्च चरित्र के लिए कितना बड़ा उपहार है।

चौ० चरणसिंह की जनता व बुद्धिमानों में बड़ी प्रसिद्धि है। इसका प्रमाण फरवरी 1967 में

हुए उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में उनकी बड़ी भारी जीत है जिसमें उन्होंने अपने समीप प्रतिद्वन्द्वी को 52,000 से भी अधिक मतों से हराया। यह भारतवर्ष में अब तक हुए चार विधानसभा के चुनावों में सबसे अधिक मतों वाली विजय थी।

चौ० चरणसिंह द्वारा जनता सरकार में केन्द्रीय गृहमन्त्री रहकर ग्रामीण विकास

चौ० चरणसिंह, केन्द्रीय गृहमन्त्री होते हुए भी, ग्रामीण विकास के प्रधान उद्देश्य से पृथक् नहीं रहे। अगली पंचवर्षीय योजना का प्रारूप तैयार कराने में चौधरी साहब ने विशेष रुचि दिखाई और 33% गांवों के लिए बजट में व्यवस्था कराई।

किसानों के लिए हर सम्भव लड़ाई, मन्त्रीमण्डल में रहकर भी वे लड़ते रहे और मात्र इन्हीं सवालों पर मतभेद के कारण मन्त्रीमण्डल से पृथक् होना पड़ा। सन् 1977 में जनता पार्टी के विधिवत् गठन के बाद, जिसके अध्यक्ष श्री चन्द्रशेखर बनाये गये थे, प्रथम बैठक में चौ० चरणसिंह ने देश विदेश की कृषि व्यवस्था का गहन अध्ययन कर एक 66 पृष्ठ का नोट तैयार कर, जनता पा

र्टी कार्य समिति के समक्ष प्रस्तुत किया, हिसका संक्षिप्तस्वरूप इस प्रकार था –

  1. भारत के लिए सहकारी खेती अनुपयोगी है। अधिक उपज लेने और अधिक रोजगार देने के लिए स्वतन्त्र वैयक्तिक कृषि व्यवस्था को प्रोत्साहन देना चाहिए।
  2. प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने और प्रति एकड़ श्रमिकों की संख्या घटाने की आवश्यकता है, शेष लोगों को अन्य लघु उद्योगों में लगाया जाए।
  3. हमारे यहां जमीन कम है अतः वैज्ञानिक उपकरणों से पैदावार बढ़ाई जाए।
  4. खेती की चकबन्दी अनिवार्य है, अतः मध्यम किस्म के फार्म बनाये जायें। एक व्यक्ति के पास 2.5 एकड़ से छोटी और 27 एकड़ से बड़ी जोत नहीं होनी चाहिए।
  5. भूमि सुधार सख्ती से लागू किए जायें और बड़े भूपतियों को समाप्त किया जाए।
  6. औद्योगीकरण के आइने में पहले कुटीर उद्योग फिर लघु उद्योग और अंततः भारी उद्योग को स्थान मिलना चाहिए।
  7. सम्पूर्ण बजट का 33% कृषि पर व्यय किया जाए
  8. कुल बिजली का 50% गांवों में दिया जाए तथा बिजलीघर शहर व गांव दोनों में समान समान हों।
  9. प्रति 10,000 की जनसंख्या पर गांवों में अनाज गोदाम तैयार किये जायें तथा इन सुरक्षित अन्न भण्डारों के आधार पर 80% तक ऋण दिया जाए, साथ ही बाजार में अन्न्की कीमतें बढ़ने पर, अन्न निकालकर बेचने की स्वतन्त्रता हो।

इसी आधार पर चौधरी साहब ने गांवों में बिजली, पेयजल, सड़क निर्माण आदि कार्यों के लिए मन्त्रीमण्डल में रहकर प्रधानमन्त्री की इच्छा के विपरीत भी अनेक निर्णय कराये और ग्रामीण किसानों व मजदूरों के हित में अनेक निर्णय कराये।

केन्द्रीय वित्त मन्त्री के रूप में भी चौधरी साहब ने ऐसा बजट प्रस्तुत किया कि बड़े उद्योगों पर बड़े-बड़े टैक्स लगाकर और कुटीर व लघु उद्योगों के टैक्स घटाकर सही समाजवादी दिशा में

देश को बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। वह एक ऐतिहासिक घटना थी जब केन्द्रीय वित्तमन्त्री एवं उपप्रधानमंत्री चौ० चरणसिंह पूंजीपतियों से टक्कर लेने के लिए सीधे मैदान में उतर आए। इसके पीछे उनकी ईमानदारी, आदर्शवादिता और बेबाक निर्णय लेने की अटूट क्षमता ही काम आई। सारे देश के पूंजीपति अपने पर हुए इस हमले से तिलमिला गए और बजट को घोर प्रतिक्रियावादी, जनविरोधी आदि अनेक अलंकारों से अभिहित किया। किन्तु उसके व्यापक प्रभाव हुए और गरीबों तथा किसानों को राहत प्राप्त हुई, क्योंकि उनके उपयोग की खेती एवं किसानों की वस्तुओं पर टैक्स घटा दिए गए थे। इस प्रकार केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में रहकर भी चौधरी साहब ने देहात और गरीब की बात को आगे बढ़ाने का कार्य किया।

इसी प्रकार चौ० चरणसिंह केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में गृहमन्त्री, वित्तमन्त्री और प्रधानमन्त्री के रूप में भी देश में सर्वाधिक चर्चित नेताओं में माने जाने लगे थे। साथ ही उनकी ख्याति एक विचारक किसान नेता और कुशल प्रशासक के रूप में सदैव बनी रही है। यद्यपि राष्ट्रीय रंगमंच पर उतरने के बाद ही उनके यह गुण अधिक प्रखर हुए और सामान्य जन के समक्ष आये।

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(ख) चौ० चरणसिंह का उत्तरप्रदेश में गृहमन्त्री रहकर कार्य

चौ० चरणसिंह सन् 1960 में उत्तरप्रदेश कांग्रेस सरकार में 15 माह तक गृहमन्त्री रहे। इस अवधि में आपने पुलिस विभाग के भ्रष्टाचार को कम करने, उसकी कार्यकुशलता को बढ़ाने तथा पुलिस की आन्तरिक समस्याओं को सुलझाने में आपका अपूर्व योगदान रहा है, जो निम्न प्रकार से है –

  • 1. आपने कार्यभार संभालते ही तुरन्त एक आई० जी० को सेवामुक्त कर दिया जो 5 वर्ष से अधिक इस पद पर था जो कि नियम के विरुद्ध था। तथा एक अत्यधिक ईमानदार डी० आई० जी० शरतचन्द्र मिश्रा को गुप्तचर विभाग में अतिरिक्त आई० जी० के पद पर नियुक्त किया।
  • 2. आपने पुलिस विभाग को यह खुला आश्वासन दिया कि सरकारी कार्य में किसी प्रकार का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करें जिसके फलस्वरूप पुलिस के मनोबल व कार्यक्षमता दोनों में वृद्धि हुई और प्रशासन में सुधार हुआ। इस संदर्भ में एक उदाहरण बहुत दिलचस्प है – लखनऊ में हजरतगंज चौराहे पर ट्रेफिक पुलिस ने कुछ छात्रों का चालान नियमों की अवज्ञा तथा सिपाही के साथ अशिष्टता के आरोप में कर दिया। उनमें से एक छात्र राजपत्रित सेवा के लिए चुना गया था जिसके चरित्र की पूर्व जांच पुलिस कर रही थी। तभी उस छात्र को माफ करने के लिए चौधरी साहब के सहयोगियों व अधिकारियों ने भी सिफारिश की, कारण वह एक अनाथ विधवा का पुत्र था। चौधरी साहब का विवेकपूर्ण उत्तर था कि “मैं अपने उन सिपाहियों के पास इसे भेजता हूं जिनके साथ इस छात्र ने हरकत की है। यदि वह सिपाही इसे माफ कर दें तो इसे माफ समझा जायेगा।”
  • 3. दिसम्बर 1961 में पुलिस सप्ताह के सन्दर्भ में बुलाई गई पुलिस अधिकारियों की एक बैठक में चौधरी साहब ने घोषणा की कि वे भविष्य में ऐसा आदेश जारी कर रहे हैं जिससे कचहरियों में पुलिस को झूठी गवाही नहीं देनी होगी तथा पुलिस के सभी उच्च अधिकारियों को आदेश दिया है कि वे किसी थाने का निरीक्षण करने जायें तो अपने

खर्च को थानेदारों को वहन न करने दें, साथ ही अपने घरों में सिपाहियों द्वारा काम कराने या नियम विरुद्ध कोई सेवा लेने पर भी कड़ी रोक लगा दी है।

  • 4. सभी महानगरों में रेडियो यंत्रयुक्त गश्ती पुलिस की व्यवस्था भी आपने ही कराई जो सर्वप्रथम लखनऊ व कानपुर से शुरु हुई। इससे नागरिक सुरक्षा में वृद्धि हुई। सब-इन्सपेक्टरों की नियुक्ति के नियमों में भी आपने इस प्रकार परिवर्तन किया कि योग्य व गरीब परिवारों के युवकों को मौका मिल सका।
  • इसी सन्दर्भ में ट्रेनिंग कालिज मुरादाबाद में प्रशिक्षणार्थियों द्वारा जमा करने वाली राशि 1000/- रुपया को रद्द करके मासिक व्यय के लिए 80/- रुपये की व्यवस्था सरकारी स्तर पर कर दी गई।
  • 5. मार्च 1962 में पुलिस बजट प्रस्तुत करते हुए घोषणा की कि अराजपत्रित पुलिस कर्मचारियों के मुठभेड़ में मारे जाने या अन्यत्र कार्यपालन में मृत्यु होने पर उनके उत्तरजीवियों को उसकी पूरी आय (मासिक वेतन वृद्धि सहित) दी जाती रहेगी तथा पेन्शन भी दी जायेगी।
  • 6. आपने थानों में सही रिपोर्ट दर्ज कराने और रिपोर्ट के आधार पर थाने की कुशलता आंकने की व्यवस्था की, जिससे अपराधों की सही स्थिति ज्ञात हो सकी। इसी प्रकार की गलतियों पर बड़े अधिकारियों को अधिक दण्ड देने का प्रावधान किया तथा तरक्की, नियुक्ति व तबादले के सन्दर्भ में किसी भी सिफारिश को पूर्णतः नजरअंदाज करने के लिए कहा। प्रतिफलस्वरूप 1961 में सब-इन्स्पेक्टरों की नियुक्ति के सन्दर्भ में स्वयं आई० जी० पुलिस ने घोषणा की कि इस वर्ष एक भी सिफारिश प्राप्त नहीं हुई।
  • 7. सन् 1962 में मेरठ के एक कांग्रेसी पर मुकदमा चलाने के आरोप में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (जो पूर्णतया उचित था) का स्थानांतरण मुख्यमन्त्री ने कर दिया। बाद में गुप्तचर विभाग ने उस कांग्रेसी को दोषी ठहराया तो मुख्यमण्त्री के निर्णय के विरोध में चौधरी चरणसिंह ने गृहमन्त्रालय से त्यागपत्र दे दिया तथा कहा कि यदि कर्त्तव्यपालन में संलग्न किसी अधिकारी को मैं संरक्षण नहीं दे सकता तो इस पद पर रहने का मेरा कोई औचित्य नहीं है।

जाटों के कुछ जौहर

(ग) चौ० चरणसिंह द्वारा अन्य विविध विभागों में रहकर कार्य

  • 1. पशुपालन विभाग में रहकर चौ० चरणसिंह ने 1954 में मवेशी अतिक्रमण अधिनियम 1955 को संशोधित किया। उत्तरप्रदेश में गोहत्या निवारण अधिनियम की तैयारी कर उसे 1955 में अधिनियम का रूप दिया। प्रदेश गोशाला अधिनियम तथा 1964 का मवेशी सुधार अधिनियम बनना भी चौ० साहब की उपलब्धि थी।
  • 1953-54 में मवेशी मंडियों के नियन्त्रण के लिए एक विशेष विधेयक तैयार कराया, जो देश के स्तर पर पहला कदम था, किन्तु पंत जी दिल्ली चले गये, चौधरी साहब का विभाग बदल गया, फिर इसे अन्तिम रूप न मिल सका।
  • 2. आपने परिवहन विभाग में रहकर बसों तथा सार्वजनिक वाहनों के संचालन में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के अनेक कार्य किये। एक से अधिक परमिट देने पर रोक लगा दी गई। नाबालिग स्त्री, अपंग व विधवाओं को उपरोक्त स्थितियों में छूट दी गई।
  • 3. सन् 1958 में वित्त विभाग संभालने पर आप ने सार्वजनिक धन की बर्बादी को रोकने के कारगर उपाय किए। खाद्यान्न व्यापारियों पर लगाये जाने वाले विक्रय की पुरानी प्रणाली को पूर्णतया संशोधित किया।
  • 4. सन् 1958-59 में चार माह के लिए सिंचाई व ऊर्जा विभाग देखा। जब इन क्षेत्रों में भ्रष्टाचार की जांच शुरु की तो आप से विभाग वापिस लिया गया।
  • इसका कारण यह भी था कि चौधरी साहब ने रिहन्ध बांध परियोजना से प्राप्त समस्त विद्युत शक्ति के आधे से अधिक बिजली, बिड़ला परिवारों को अल्यूमिनियम कारखाने के लिए देने का कड़ा विरोध किया, जो मुख्यमन्त्री डा० सम्पूर्णानन्द को अखर गया। जलमार्गों के निर्माण कार्य भी, जिसके कारण करोड़ों रुपये के नलकूप कई वर्ष से बेकार खड़े थे, आप की विशेष उपलब्धि है।
  • 5. आपने वन विभाग में रहकर वनभूमि पर अनधिकृत कब्जे सख्ती से रोके और बेदखली कानून सरल किया। निजी वनभूमि के असंख्य टुकड़े मालिकों को दे दिये तथा प्रशासन योग्य क्षेत्र ही अपने पास रखे। लगभग 1600 वर्गमील जंगल जो कि जिला के प्रशासन से सम्बद्ध थे तथा बेकार हो गये थे, वन विभाग में शामिल कर दिये गये।
  • मुनाचम्बल की घाटियों को जंगल बनाने की योजना तैयार की, जिसने तमाम उपजाऊ भूमि के कटाव को रोकने तथा अपार वनसम्पदा देने का कार्य किया।
  • 1966 में वन विभाग ने स्वयं सड़कों पर वृक्षारोपण का कार्य किया। जमींदारों के लिये वनों के विकास को द्रुतगामी गति प्रदान की तथा टेहरी क्षेत्र में प्राप्त वनों के संरक्षण का असाध्य प्रश्न जो 15 वर्ष से अनिर्णीत पड़ा था, एक अधिनियम द्वारा हल कर दिया गया।
  • 6. सन् 1970 में चौ० चरणसिंह ने अपने भारतीय क्रान्ति दल (BKD) के साथ इन्दिरा कांग्रेस को मिलाकर उत्तरप्रदेश में संयुक्त मन्त्रिमण्डल बनाया जिसके आप मुख्यमन्त्री थे। उस समय आपने अध्यादेश द्वारा घोषणा की कि शिक्षा संस्थाओं में विवश विद्यार्थी संघ नहीं होगा। ये सब संघ इच्छापूर्वक प्रकार से होंगे।
  • इसके फलस्वरूप कोई हड़ताल न हुई, नकलें न हुईं, लड़कियों के साथ छेड़छाड़ बन्द हो गई और इसके बाद पहली बार शिक्षा संस्थाओं में आजादी से पढ़ाई होने लगी तथा उपस्थिति में वृद्धि हुई। चौ० चरणसिंह को संस्थाओं के अध्यक्षों की ओर से बड़ी संख्या में तार व पत्र मिले जिनमें लिखा गया था कि आपके इस उपाय से विद्यार्थी संघ तथा अध्यापकों के लिये बड़ा लाभ प्राप्त हुआ है।
  • 7. चौ० साहब ने इसी तरह से गुण्डा नियंत्रण अधिनियम बनाया। यह एक्ट पास भी न हुआ था, केवल इस अधिनियम की सरकार द्वारा विचार करने की सूचना सुनकर, गुण्डे जो अपने पास चाकू लिये सड़कों पर एकत्र हो जाते थे, सब अदृश्य हो गये और कहीं भी दिखाई नहीं दिये। ऐसे उदाहरण अवश्य थे कि माता-पिता अपने बच्चों को विशेषकर लड़कियों को बाहर नहीं जाने देते थे, किन्तु यह अध्यादेश जारी होने पर वे अपने बच्चों को शिक्षा संस्थाओं में भेजने लगे।
  • 8. गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार और मध्यप्रदेश प्रान्तों में भयंकर कौमी उपद्रव हुए किन्तु चौ० चरणसिंह के शासनकाल में उत्तरप्रदेश में, जहां मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक है, इस तरह का कौमी झगड़ा एक भी न हुआ। जितने समय चौ० चरणसिंह सरकार में रहे, किसी कारखाने में या सरकारी कर्मचारियों द्वारा पूरे उत्तरप्रदेश में एक भी हड़ताल नहीं हुई।
  • 9. चौ० चरणसिंह ने मंत्रियों के सादा जीवन के लिए सदा आवाज़ उठाई, मंत्रियों का वेतन घटाकर 1000/- रुपये प्रति मास, प्रयोग के लिए छोटी अम्बेसेडर कार, ट्रेन यात्रा में पी० ए० सी० गार्द की समाप्ति के निर्णय आपने ही कराये। प्रधानमंत्रित्व काल में भी श्यामनंदन मिश्र के संयोजकत्व में एक समिति गठित की, जो मंत्रियों के भारी व्यय पर प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से गठित की गई थी।

चौ० चरणसिंह द्वारा जनहित के लिए दिए गए त्यागपत्र

चौ० चरणसिंह ने अपने मंत्रीपद को सदैव जनसेवा का अवसर मानकर कार्य किया और त्यागपत्र सदैव साथ लेकर चले और जब भी जनहित के विरुद्ध प्रश्न उठा, त्यागपत्र दे दिया। महत्त्वपूर्ण त्यागपत्र इस कालान्तर में क्रमशः मार्च 1947, जनवरी 1948, अगस्त 1948, मार्च 1950, जनवरी 1951, नवम्बर 1957, अप्रैल 1959 तथा अगस्त 1963 में दिए।

इसी प्रकार केन्द्रीय मंत्रीमण्डल से 1977-1978 में तीन बार त्यागपत्र दिए। प्रधानमन्त्री के रूप में चौ० चरणसिंह स्वयं एक छोटे से बंगले में रहे जो उनको सांसद के रूप में मिला था।

प्रधानमंत्री की सभी शान शौकत उन्हें छू तक नहीं गई थी। उन जैसी सादगी देश के दूसरे नेता में देखने को नहीं मिलती। यद्यपि वे अपने लम्बे जीवन में काफी समय तक मन्त्रिमण्डल में रहे हैं किन्तु सत्ता का नशा, भ्रष्टाचार, ऐशो-आराम व अय्याशी के वे प्रबल विरोधी रहे हैं। यही कारण है कि वह सामान्य गरीब जनता के हित में सोचते और यथाशक्ति उन पर निर्णय भी कराते रहे हैं।

जनता पार्टी की उत्पत्ति

डॉ० राममनोहर लोहिया ने सन् 1967 में कांग्रेस विरोधी मोर्चे का गठन कर आठ प्रदेशों से कांग्रेस को सत्ताच्युत कर दिया था। इसके पीछे उनकी मात्र धारणा यही थी कि देश के कुल मतों के एक-तिहाई द्वारा कांग्रेस शासन करती है और दो-तिहाई वाला विरोधी पक्ष टुकड़े-टुकड़े होकर विपक्ष में सम्मान प्राप्त नहीं कर पाता।

यदि सभी विपक्षी दल संगठित होकर कांग्रेस का विकल्प प्रस्तुत करें तो एक क्षण भी कांग्रेस सत्ता में नहीं रह सकती। सन् 1967 के गठबन्धन के बाद में विपक्षी एकता टूट गई और 10 वर्ष तक फिर कांग्रेस शासन करती रही।

लेकिन चौ० चरणसिंह जो समय की गति को ठीक तरह देखना जानते थे, एकमात्र वह व्यक्ति थे जो कांग्रेस त्यागने के बाद ही डॉ० लोहिया की आधारशिला पर महल खड़ा करने का सपना दिल में संजोये राजनैतिक पथ पर बढ़ते जा रहे थे।

चौधरी साहब कांग्रेस छोड़कर भारतीय क्रांतिदल, संयुक्त विधायक दल और भारतीय लोकदल (भालोद) बनाकर कांग्रेस के विकल्प का बीजारोपण करने में सफल हो गये। आप ही जनता पार्टी के संस्थापक हैं।

आपके सहयोगी राजनारायण, पीलू मोदी, बीजू पटनायक, कर्पूरी ठाकुर, चौधरी देवीलाल, रविराय आदि योग्य नेता थे। इन सबके सहयोग से चौधरी साहब ने उत्तर प्रदेशबिहारउड़ीसाहरयाणाराजस्थान व गुजरात तक अपना सबल अस्तित्व बना लिया।

तभी देशव्यापी असन्तोष, आसमान छूती हुई कीमतें, सिर तक डूबा हुआ भ्रष्टाचार, अभाव और अव्यवस्था के कारण प्रस्फुटित हुआ और गुजरात से आन्दोलन के रूप में छात्रों और नौजवानों ने शासन के विरुद्ध बगावत का झण्डा उठाया। उनकी मांग विधान सभा भंग करने की थी जो पूरी हुई।

जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण

इस प्रकार देश को एक नई दिशा मिली और शनैः शनैः यह आंदोलन बिहार से लेकर सारे देश को हिलाने लगा। यह आन्दोलन युवा पीढ़ी ने उठाया था और पूर्णतया गैर राजनैतिक सीमाओं में रखने क निर्णय लिया गया था किन्तु पूर्णतया राजनैतिक बनता चला गया।

इसका नेतृत्व बाबू जयप्रकाश को सौंपा गया जो आन्दोलन के राष्ट्रीयस्वरूप और दलविहीन लोकतंत्र के लिए चिंतित थे, वहीं दूसरी ओर चौधरी चरणसिंह आन्दोलन की अव्यावहारिकता बताते हुए विपक्षी राजनीति को एक मंच पर खड़ा करने को आतुर थे।

इस प्रकार आपातकाल के एक वर्ष पूर्व की स्थिति में देश में दो विचारधाराओं का साथ-साथ प्रादुर्भाव हुआ। अन्त में जे० पी० को चौधरी साहब के विचारों का होना पड़ा।

चौ० चरणसिंह ने जे० पी० से अनुरोध किया कि वह संगठन कांग्रेस, जनसंघ एवं सोशलिस्ट पार्टी को मिलाकर हमारे भारतीय लोकदल का नेतृत्व करें ताकि कांग्रेस को पराजित किया जा सके। किन्तु इस बात से जे० पी० सहमत नहीं थे।

उनका कहना था कि सभी प्रजातांत्रिक दलों को मिलाकर एक संघीय दल का गठन किया जाना चाहिए। किन्तु जब गुजरात के विधान सभा चुनावों में यह प्रयोग (संयुक्त मोर्चा रूप) असफल हो गया तो नए दल के गठन के पक्ष में वातावरण तैयार हुआ।

इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि कांग्रेस विकल्प के लिए नये दल के गठन के पक्ष में प्रारम्भ से यदि कोई प्रयत्नशील था तो वह भारतीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी चरणसिंह का दूरदर्शी व्यक्तित्व था।

बीजू पटनायक का कहना था -“जितने पूर्वाग्रहों, संकोचों, हिचकिचाहटों तथा जानी अनजानी भयंकर प्रसव पीड़ाओं को भोगने के बाद जनता पार्टी का जन्म संभव हुआ था। विलय की उन समस्त प्रतिक्रियाओं की जब जब याद आती है, तो अनायास ही मेरा मन चौ० चरणसिंह जी के प्रति आदर, श्रद्धा एवं उपकार भावना से जुड़ जाता है।

यदि चौधरी साहब कांग्रेस के विकल्प की सिद्धि के प्रति इतने समर्पित, भावुक और प्रतिबद्ध नहीं होते तो क्या देश तानाशाही के शिकंजे से इतनी जल्दी मुक्ति पा सकता था?”

चौधरी चरणसिंह
चौधरी चरणसिंह

आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक (21 माह)

सभी दलों के एकीकरण सम्बन्धी चौधरी साहब के प्रस्ताव के लिए सभी दलों की बैठक बुलाई जाने वाली थी तभी 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी और इस प्रयास को एक बार झकझोर दिया।

इंदिरा गांधी सरकार ने चौ० चरणसिंह को 25 जून रात्रि, 1975 को तिहाड़ जेल में बन्द कर दिया। जयप्रकाश, मोरारजी, राज नारायण, देवीलाल आदि हरयाणा में कैद थे। तभी नानाजी देशमुख और सत्यपाल मलिक देश भर के विपक्षी दलों के कार्यकर्त्ताओं के नाम परिपत्र भेजकरn गिरफ्तारी देने और जेल भरो आन्दोलन तथा भूमिगत आन्दोलन को सक्रिय बनाने के लिए संलग्न थे।

इस दौरान में चौधरी साहब जेल से प्रकाशसिंह बादल के साथ वार्ता कर विलय के प्रश्न को आगे बढ़ाने के उत्सुक थे तथा अपने मिलने वालों से इस व्याकुलता को उजागर करते थे।

वे तिहाड़ जेल से ही एक ही विपक्षी राजनैतिक पार्टी बनाने का भरपूर प्रयत्न करते रहे। नवम्बर 1975 में बाबू जयप्रकाश को मरणासन्न स्थिति में पैरोल दी गई कि कहीं जेल में ही उनका जीवन समाप्त न हो जाये। लेकिन जे० पी० अपने इलाज के लिए सीधे अस्पताल में गये अतः विशेष प्रगति इस दिशा में संभव न हुई।

पुनः मार्च 1976 में चौ० साहब को रिहा कर दिया गया। कैद से छूटने पर चौधरी साहब ने इंदिरा की तानाशाही सरकार के विरुद्ध अपना कार्य जोरों से चालू किया। आपने 23 मार्च 1976 को विपक्षी नेता के तौर पर उत्तरप्रदेश विधान सभा में गड़गड़ाहट उत्पन्न करने वाला भाषण दिया, जिससे कांग्रेसियों का दिल दहल गया। इस भाषण को प्रजातन्त्र के प्रेमी सदा याद रखेंगे।

चौ० चरणसिंह ने बम्बई में, बाहर रहने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की, एक बैठक अपने निर्देशन में बुलाई, जिसमें एक समिति का गठन इस विलय प्रक्रिया को आगे बढ़ाने हेतु किया गया। इस समिति के सर्वश्री एन० जी० गौरे संयोजक तथा एच० एम० पटेल, शांतिभूषण और ओ० पी० त्यागी सदस्य थे। इस समिति को जयप्रकाश जी का भी आशीर्वाद प्राप्त था।

जाट कौम सावधान

चौधरी साहब ने इसके तुरन्त बाद 4-5 अप्रैल को भालोद की राष्ट्रीय समिति की बैठक बुलाई। जिसमें इस समिति के महत्त्व की समीक्षा करते हुए कांग्रेस का विकल्प तैयार करने हेतु भालोद द्वारा अपना सर्वस्व त्याग कर आगे आने की पेशकश की गयी और निर्णय से संयोजक समन्वय समिति को अवगत करा दिया गया। इसके पश्चात् विलय के विषय में अनेक बैठकें हुईं।

18 जनवरी 1977 को अचानक इंदिरा गांधी ने चुनाव घोषणा कर विपक्ष को संकट में डाल दिया। 19 जनवरी को मोरारजी देसाई जेल से रिहा हुए। रात को मोरारजी के निवास पर सभी दलों के नेताओं की बैठक हुई जिसमें चरणसिंह, अटलबिहारी, सुरन्द्रमोहन, पीलू मोदी, नानाजी देशमुख,एन० जी० गोरे व अशोक मेहता शामिल हुए और देसाई ने अध्यक्षता की।

बैठक में गतिरोध पैदा हो गया। पहले मुरारजी ने मोर्चे की पेशकश की तब चौधरी व गोरे ने इस पर उत्तेजित होकर कड़ा रुख अपनाया तो वह अध्यक्ष पद के लिए अड़ गए, बात आगे बढ़ गई। जे० पी० को दिल्ली फिर बुलाया गया, उन्होंने फैसला कर दिया – “यदि विलय करके एक दल नहीं बनाया जाता तो मैं चुनाव प्रचार नहीं करूंगा।”

इस पर मोरारजी झुके किन्तु अध्यक्ष पद छोड़ने को तैयार न थे। अतः जे० पी० ने निर्णय दिया कि “मोरारजी अध्यक्ष, चौ० चरणसिंह एकमात्र उपाध्यक्ष हैं और क्योंकि चौधरी का उत्तर भारत में सर्वाधिक प्रभाव है अतः चुनाव प्रचार, प्रत्याशियों का चयन और समस्त रणनीति वही तैयार करेंगे।”

भालोद और उसके नेता चौ० चरणसिंह ने अपने एक-सूत्रीय कार्यक्रम को पूरा होते देखा तो सब कुछ समर्पित कर जे० पी० से सहमति व्यक्त कर दी। 23 जनवरी 1977 को देसाई के 5 डूप्ले रोड स्थित निवास पर जनता पार्टी के गठन की घोषणा के साथ चौधरी के 3 वर्ष पुराने भागीरथ प्रयास सफल हो गए। 21 माह तक आपातकाल स्थिति रहने के बाद 1977 में देश में आम चुनाव हुए।

यह चुनाव भालोद के नामांकन पत्र व सदस्यता पर ही लड़ा गया क्योंकि चुनाव आयोग ने जनता पार्टी को मान्यता नहीं दी थी। साथ ही इस चुनाव का नेतृत्व एकमात्र चौधरी चरणसिंह

सिद्धू बराड़ जाट वंश – Sidhu Brar Jat Dynasty

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