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सिद्धू बराड़ जाट वंश – Sidhu Brar Jat Dynasty

सिद्धू बराड़ जाट वंश - Sidhu Brar Jat Dynasty

सिद्धू बराड़ जाट वंश – Sidhu Brar Jat Dynasty

ये दोनों जाटवंश (गोत्र) चन्द्रवंशी मालव या मल्ल जाटवंश के शाखा गोत्र हैं। मालव जाटों का शक्तिशाली राज्य बौद्धकाल में था।

सिद्ध (सिद्धू) शब्द सिद्धार्थ (गौतम बुद्ध के बचपन का नाम) और इसके बाद इस वंश के जाटों के अलग-अलग दो राज्य, उत्तरी भारत में मल्लराष्ट्र तथा दक्षिण में मल्लदेश थे।

सिकन्दर के आक्रमण के समय पंजाब में इनकी विशेष शक्ति थी। मध्यभारत में अवन्ति प्रदेश पर इन जाटों का राज्य होने के कारण उस प्रदेश का नाम मालवा पड़ा।

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इसी तरह पंजाब में मालव जाटों के नाम पर भटिण्डा, फरीदकोट, फिरोजपुर, लुधियाना आदि के बीच के प्रदेश का नाम मालवा पड़ा।

फुलकिया रियासत नाभा पटियाला जींद

जब सातवीं शताब्दी में भारतवर्ष में राजपूत संघ बना तब मालव या मलोई गोत्र के जाटों के भटिण्डा में भट्टी राजपूतों से भयंकर युद्ध हुए। उनको पराजित करके इन जाटों ने वहां पर अपना अधिकार किया।

इसी वंश के राव सिद्ध भटिण्डा नामक भूमि पर शासन करते-करते मध्य भारत के सागर जिले में आक्रान्ता होकर पहुंचे। इन्होंने वहां बहमनीवंश के फिरोजखां मुस्लिम शासक को ठीक समय पर सहायता करके अपना साथी बना लिया था जिसका कृतज्ञतापूर्वक उल्लेख शमशुद्दीन बहमनी ने किया है।

इस लेखक ने राव सिद्ध को सागर का शासनकर्त्ता सिद्ध किया है। राव सिद्ध मालव गोत्र के जाट थे तथा राव उनकी उपाधि थी। इनके छः पुत्रों से पंजाब के असंख्य सिद्धवंशज जाटों का उल्लेख मिलता है।

राव सिद्ध अपने ईश्वर विश्वास और शान्तिप्रियता के लिए विख्यात माने जाते हैं। राव सिद्ध से चलने वाला वंश ‘सिद्धू’ और उनकी आठवीं पीढ़ी में होने वाले सिद्धू जाट गोत्री राव बराड़ से ‘बराड़’ नाम पर इन लोगों की प्रसिद्धि हुई।

राव बराड़ के बड़े पुत्र राव दुल या ढुल बराड़ के वंशजों ने फरीदकोट और राव बराड़ के दूसरे पुत्र राव पौड़ के वंशजों ने पटियाला, जींद, नाभा नामक राज्यों की स्थापना की।

जब पंजाब पर मिसलों का शासन हुआ तब राव पौड़ के वंश में राव फूल के नाम पर इस वंश समुदाय को ‘फुलकिया’ नाम से प्रसिद्ध किया गया। पटियाला, जींद, नाभा रियासतें भी फुलकिया राज्य कहलाईं।

बाबा आला सिंह संस्थापक राज्य पटियाला इस वंश में अत्यन्त प्रतापी महापुरुष हुए। राव फूल के छः पुत्र थे जिनके नाम ये हैं –

  1. तिलोक
  2. रामा
  3. रुधू
  4. झण्डू
  5. चुनू
  6. तखतमल

इनके वंशजों ने अनेक राज्य पंजाब में स्थापित किए।

सिद्धू बराड़ जाट वंश – Sidhu Brar Jat Dynasty

फुलकिया से सम्बन्धित कैथल और अरनौली राज्य थे। इनके अतिरिक्त भदौड़, झुनवा, अटारी आदि छोटी-छोटी रियासतें भी सिद्धू जाटों की थीं। यही वंश पंजाब में सर्वाधिक प्रतापी है और सम्पूर्णतया धर्म से सिक्ख है।

राव सिद्धू के पुत्र राव भूर बड़े साहसी वीर योद्धा थे। अपने क्षेत्र के भट्टी राजपूतों से इसने कई युद्ध किए। इसी तरह से राव भूर से सातवीं पीढ़ी तक के इस सिद्धूवंश के वीर जाटों ने भट्टी राजपूतों से अनेक युद्ध किए।

भट्टी राजपूत नहीं चाहते थे कि हमारे रहते यहां कोई जाट राज्य जमे या जाट हमसे अधिक प्रभावशाली बनकर रहें किन्तु राव सिद्धू की आठवीं पीढ़ी में सिद्धू गोत्र का जाट राव बराड़ इतना लड़ाकू शूरवीर, सौभाग्यशाली योद्धा सिद्ध हुआ कि उसने अपनी विजयों द्वारा राज्यलक्ष्मी को अपनी परम्परा में स्थिर होने का सुयश प्राप्त किया।

यहां तक कि फक्करसर, कोट लद्दू और लहड़ी नामक स्थानों पर विजय प्राप्त करने पर तो यह दूर-दूर तक प्रख्यात हो गया। राव बराड़ के नाम पर सिद्धू वंशज बराड़ वंशी कहलाने लगे।

आजकल के सिद्धू जाट अपने को बराड़ वंशी कहलाने में गौरव अनुभव करते हैं। इस वीर योद्धा राव बराड़ के दो पुत्र थे।

बड़े का नाम राव दुल (ढुल) और छोटे का नाम राव पौड़ था। इन दोनों की वंश परम्परा में पंजाब में जो जो राज्य स्थापित किए उनका संक्षिप्त वर्णन किया जाता है।

जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण

कोटकपूरा तथा फरीदकोट राज्य

सिद्धू बराड़ जाट वंश
सिद्धू बराड़ जाट वंश

कोटकपूरा या फरीदकोट हिन्दू जाटों का वह पहला राज्य है जो वंशपरम्परागत रूप से स्थायी रूप में शासक होकर वर्तमानकाल तक विद्यमान रहा था। इस राज्य के पुरखा राव सिद्ध थे जिसके वंशज सिद्धू जाट हैं और उसी की आठवीं पीढ़ी में बराड़ नामक वीर योद्धा हुए जिनके वंशज बराड़ जाट कहलाये।

बराड़ के दो पुत्रों में से राव दुल (ढुल) नामक बड़े पुत्र थे जो कि फरीदकोट राज्य के मुख्य पुरुष माने जाते हैं। राव दुल ने अपने बाप बराड़ की जागीर पर कब्जा किया।

इसके छोटे भाई राव पौड़ ने इसके विरुद्ध बगावत कर दी, किन्तु सफल न हुआ। वह दक्षिण पश्चिम की ओर चला गया। बाद में इसके वंशजों ने पटियाला, नाभा, जींद रियासतों को स्थापित किया।

राव दुल तथा उसके वंशज कई पीढियों तक भट्टी राजपूतों से युद्ध करते रहे थे। भट्टियों और बराड़ों की लड़ाइयों का कारण यह था कि दिल्ली से घघर नदी के बीच का प्रदेश भट्टियों ने दबा रखा था।

बराड़ उसे अपनी पैतृक सम्पत्ति समझते थे। इस कारण से बराड़ और राजपूत भट्टियों में हमेशा लड़ाई रहती थी। राजपूत भट्टियों का एक बड़ा भाग मुसलमान हो चुका था। इन भट्टी मुसलमानों से भी बराड़ जाटों के युद्ध होते रहते थे।

राव दुल की छठी पीढ़ी में इसी के वंशज फत्तू नामक वीर ने पठानों की सहायता करके बदले में उनके सहारे अपने थोड़े इलाके पर अधिकार कर लिया। राव फत्तू के पुत्र राव संगर ने कोटकपूरा के पास हजारों गाय भैंस पाली हुई थीं।

एक दिन एक मुगल आक्रान्ता बादशाह बाबर भूखा-प्यासा भटकता हुआ इन सिद्धुओं के इलाके में आ निकला। राव संगर ने उसका खूब स्वागत-सत्कार किया।

बाबर ने राव संगर से मित्रता कर ली। इससे उसकी इलाके भर में धाक जम गई। यह अपने इलाके पर कब्जा किये हुए अपनी शक्ति बढ़ाता रहा।

इसने बड़ी संख्या में अपने सैनिक ले जाकर शेरशाह सूरी के विरुद्ध हुमायूं की सहायता की थी। इस प्रकार इनकी मुगलवंश से गहरी मैत्री हो गई। किन्तु भट्टियों से इनकी लागडाट बनी ही रही।

भट्टियों ने जब देखा कि सिद्धुओं ने मुगलों पर अपना गहरा प्रभाव जमा लिया है और अकबर बादशाह विजय पर विजय प्राप्त करता जा रहा है,

तो भट्टी राजपूतों के सरदार दूल्हा-भट्टी उपनाम मन्सूर ने अपनी कन्या का डोला अकबर को भेंट कर दिया।

साथ ही अपने दामाद के धर्म इस्लाम को भी स्वीकार कर लिया। किन्तु अकबर ने राव संगर के पुत्र राव भुल्लनसिंह से अपनी मित्रता में कोई अन्तर नहीं आने दिया।

राव भुल्लनसिंह बहुत नीतिनिपुण शूरवीर योद्धा था। एक बार मंसूर खां और राव भुल्लनसिंह दोनों संयोगवश एक ही समय बादशाह अकबर से अपने-अपने इलाकों का निर्णय निपटारा कराने के लिए गए।

अकबर ने फिर किसी समय हदबन्दी करा देने के लिए कहा। अकबर ने मन्सूर खां को भेंट में सिरोपाव दिया जिसके ऊपर पगड़ी रखी थी। राव भुल्लनसिंह को ईर्ष्याग्नि में जलाने के दृष्टिकोण से मन्सूर ने उस पगड़ी को वहीं बांधना आरम्भ कर दिया।

जाट की तुरत बुद्धि तो भारत विख्यात ही है। भुल्लनसिंह ने तत्काल उठकर उसी पगड़ी के दूसरे सिरे को सिर पर तेजी से लपेटना प्रारम्भ कर दिया।

अकबर ने यह सब देखा और वह बोला – “बस, तुम दोनों की राज्य सीमाओं का इस प्रकार अपने आप निर्णय हो गया। इस समय यह पगड़ी जिसके सिर पर जितनी है, उसी हिसाब से दोनों अपने-अपने राज्य का निपटारा कर लो।”

नाप कर देखा गया तो दोनों पर पगड़ी बराबर निकली। दोनों अपना फैसला पाकर अपने-अपने इलाकों को लौट आये। परन्तु भट्टी मन्सूर खां भांति-भांति के उत्पात खड़े करता ही रहा।

इस पर तंग आकर जाटों ने भट्टियों पर जोरदार आक्रमण किया। यह घमासान युद्ध कभी तेज, कभी मन्द होते-होते बहुत दिन चला। मन्सूर के दोनों पुत्र इन लड़ाइयों में मारे गये।

बराड़ जाटों के दो सरदार हेवतसिंह और जल्ला भी मारे गये। दोनों ओर के हजारों लोगों का नुकसान हुआ। विजय बराड़ जाटों के हाथ रही। मन्सूर खां भागकर रानिया को चला गया।

ये युद्ध बलूआना (स्टेट पटियाला) तथा मौजा दयून (स्टेट फरीदकोट) के स्थान पर हुए थे। इन ऐतिहासिक युद्धों में विजय पाकर बराड़ बहुत शक्तिशाली हो गये।

सिद्धू बराड़ जाट वंश - Sidhu Brar Jat Dynasty
सिद्धू बराड़ जाट वंश

मन्सूर खां ने बराड़ों पर फिर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर से खतराना (फिरोजपुर और रानिया के बीच) के स्थान पर घोर संग्राम हुआ जिसमें भट्टी मन्सूर खां काम आया।

भट्टी और बराड़ों के विवाद में बादशाह अकबर कभी नहीं पड़ा, वह अपने ससुर की गलती और जाटों की शक्ति से परिचित था।

राव भुल्लनसिंह ने शनैः शनैः अपने इस जाट राज्य का बहुत विस्तार कर लिया। उसने कोट कपूरा, फरीदकोट, माढ़ी, मुदकी, मुक्तेश्वर के सभी प्रदेशों को पूरे आधिपत्य के साथ अपने अधिकार में कर लिया।

अकबर ने उसे ‘चौधरी’ का खिताब दिया। यह राज्य तब तक हिन्दू जाटों का ही था। भुल्लनसिंह ने इतनी लम्बी आयु पाई कि अकबर से लेकर शाहजहां तक उसका जीवन रहा।

अन्तिम समय में शाहजहां के लिए बुन्देलों के साथ लड़ते हुए ओरछा के पास अपने भाई लालसिंह समेत निस्सन्तान वीरगति को प्राप्त हुआ।

भुल्लनसिंह के समय बराड़ लूटमार करने और राज्य बढ़ाने में खूब जोरों पर थे। एक बार उनका 900 वीर सैनिकों का दल किसी युद्ध से लौटता हुआ मौजा धनौर (बीकानेर में) पहुंचा।

वहां इनको पता लता कि मौजा पूगल के रक़बा में एक खेत में राठौर राजपूतों की एक सुन्दर, शक्तिशाली नौजवान लड़की हजारों रुपये का जेवर पहने अकेली दिन रात अपने खेत में डाम्चा बनाए बैठी रहती है।

राठौर इन बराड़ जाटों के शत्रु थे। इनका दल उस लड़की के पास खेत में पहुंचा। लड़की से इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि मैं विवाह होते ही विधवा हो गई हूं। मेरे ससुराल वाले और मायके वाले करेवा नहीं करते और मेरी इच्छा पुनर्विवाह करने की है।

बराड़ सरदारों ने उस लड़की के रूप तथा उसके निशानाबाजी के कमाल को देखकर उसे शरण में ले लिया। उस लड़की के कहने अनुसार एक-एक करके उसके सामने से गुजरे।

उसने राव दुल के पुत्र रतनपाल को पसन्द किया। सरदार रतनपाल ने उस सुन्दरी को घोड़े पर अपने पीछे बैठा लिया तथा अपने दल के साथ वहां से चल पड़ा।

पता चलने पर राठौर राजपूतों ने इनसे मुकाबिला किया किन्तु बराड़वंशी जाट वीरों ने उन्हें मारकर भगा दिया। समय पाकर इस लड़की से एक लड़का पैदा हुआ जिसका नाम हरिसिंह रखा गया।

आधार पुस्तक: (‘आइना बराड़ वंश’, जिल्द 3, पृ० 96-98); जाट इतिहास पृ० 440-441, लेखक ठा० देशराज)।

सिद्धू बराड़ जाट वंश

चौ० कपूरसिंह बराड़

भुल्लनसिंह के निस्सन्तान मरने पर उसका भतीजा कपूरसिंह उत्तराधिकारी बना। इसकी आयु उस समय केवल छः वर्ष की थी। यह न नीतिज्ञ था और न शूरवीर।

बाल्यावस्था के दिनों बहुत-सा शाही टैक्स जमा नहीं किया गया था। बड़ा होने पर उस टैक्स को शाही कोष में जमा करके दिल्ली के बादशाह से ‘चौधरी’ का सम्मान प्राप्त किया और अपने खोए हुए इलाकों पर अधिकार जमाया और कुछ नई गढ़ियां भी बनवाईं।

इसके वंशज भगतू संस्थापक राज्य कैथल के कहने पर कपूरसिंह ने अपनी राजधानी कोटकपूरा बनाई। उसे बसाया गया और वहां एक सुदृढ़ दुर्ग भी बनाया। इस राज्य को सुव्यवस्थित रूप में लाने वाले सरदार कपूरसिंह जी थे।

ये राव सिद्ध की 17वीं पीढ़ी में थे। गुरु गोविन्दसिंह ने सिक्खों की रक्षा के लिए चौ० कपूरसिंह से कोटकपूरा के दुर्ग की मांग की। मुगलों से मैत्री के कारण इसने कहला भेजा – “जाट मांगे से किसी को अपनी भूमि नहीं दिया करते।”

गुरु जी इस पर बहुत अप्रसन्न हुए। किन्तु जिन मुसलमानों की मैत्री का इसे गर्व था उन्हीं में से एक कोट ईसा खां के सूबेदार ने चौ० कपूरसिंह को इन्दिया नामक गांव में धोखे से एक दावत में बुलाकर मरवा डाला।

यह घटना गुरु गोविन्दसिंह जी की मृत्यु (7 अक्तूबर, 1708 ई०) के बाद घटी। उस समय दिल्ली का सम्राट् बहादुरशाह (1707-1712 ई०) था।

धनखड़ जाट गोत्र – Dhankhar Jat Gotra History

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-777

शेखासिंह, मेखासिंह व सेनासिंह ने अपने पिता राजा कपूरसिंह की मृत्यु का बदला लेने की प्रतिज्ञा की। ये तीनों भाई 12 वर्ष तक इसी कार्य में जुटे रहे।

कई बार ईसा खां पर असफल आक्रमण भी किए। किन्तु अन्तिम बार प्रदाद नामक युद्धक्षेत्र में जमकर युद्ध हुआ। तीन दिन तक भयानक मारकाट होती रही। तब ईसा खां हाथी पर सवार होकर रणभूमि में आया।

सेनासिंह तीर की तरह सेना को चीरता हुआ हाथी तक जा पहुंचा और हाथी के पास अपना घोड़ा लगाकर हौदे में जा कूदा और झट तलवार से ईसा खां का सिर उतार लिया।

शत्रु सेना भाग निकली। तब कहीं 12 वर्ष बाद प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर बड़े भाई शेखासिंह ने कोटकपूरा में राजतिलक किया।

सिद्धू बराड़ वंश के शाही सिक्के

राजा जोधासिंह –

राजा शेखासिंह की बड़ी रानी से जोधासिंह और छोटी रानी से हमीरसिंह एवं वीरसिंह हुए। चौधरी जोधासिंह कोटकपूरा के शासक घोषित हुए।

इस समय तक कोटकपूरा के ये शासक हिन्दू जाट ही थे। इनके समय ही पंजाब में मिसलें खड़ी हुईं। इसके पूर्व कोटकपूरा, पटियाला, जींद, नाभा, कैथल आदि के संस्थापकों ने मुगल-साम्राज्य के विरुद्ध अपना प्रभाव और आतंक स्थिर करके जाट गौरव की स्थापना की।

सिद्धू बराड़ जाट वंश – Sidhu Brar Jat Dynasty

राजा जोधासिंह की अपने भाइयों से अनबन रहती थी। उसको यहां तक अभिमान हो गया कि पटियाला राज्य के संस्थापक बाबा आलासिंह और उसकी रानी फत्तो के नाम पर अपने घोड़ा-घोड़ी का नाम आल्हा फ़त्तो रख लिया।

बाबा आलासिंह

आलासिंह इस अपमान का शीघ्र ही बदला लेना चाहता था किन्तु उसके यहां भी बाप-बेटे में झगड़ा चल रहा था। उधर जोधासिंह के भाई हमीरसिंह ने अपनी अलग रियासत ‘फरीदकोट’ स्थापित कर ली। उसने फरीदकोट के किले पर अधिकार कर लिया।

तीनों भाइयों का अलग-अलग राज्य हो गया। हमीरसिंह का फरीदकोट, वीरसिंह का माड़ी और जोधासिंह का कोटकपूरा पर अधिकार हो गया। तीनों भाइयों ने सिक्ख धर्म की दीक्षा ली।

कुछ समय बाद अमरसिंह रईस पटियाला ने हमीरसिंह एवं वीरसिंह को साथ लेकर कोटकपूरा पर चढ़ाई कर दी। इन्होंने जोधासिंह व उसके दोनों पुत्रों को युद्ध में मार डाला।

जोधासिंह का कोटकपूरा में दाहसंस्कार हुआ। वहां पर इनकी समाधि बनाई गई जो आज तक “बाबा जोधा” के नाम से प्रसिद्ध है। जोधासिंह के और दो पुत्र टेकसिंह और अमरीकसिंह थे।

टेकसिंह कोटकपूरा का मालिक हुआ। उसने बाप का बदला लेने के लिए अपने चाचा हमीरसिंह को मारना चाहा। किन्तु सन् 1806 ई० में उसी के बेटे जगतसिंह ने उसे आग में जिन्दा जला दिया।

अब जगतसिंह अपने बाप की रियासत कोटकपूरा का मालिक बन बैठा। महाराजा रणजीतसिंह ने कोटकपूरा रियासत को अपने राज्य में मिला लिया।

इस तरह से जोधासिंह खानदान के शासन का अन्त हो गया। वीरसिंह का राज्य मांड़ी, जो कि इलाका फिरोजपुर में था, को अंग्रेजी राज्य में शामिल कर लिया गया।

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राजा हमीरसिंह –

राजा हमीरसिंह फरीदकोट नामक रियासत का पहला शासक था। इसी से ही फरीदकोट की परम्परा शुरु हुई, ऐसा माना जाता है। यह राव सिद्ध की 20वीं पीढ़ी में तथा राव बराड़ की 13वीं पीढ़ी में हुआ।

यह सिक्ख धर्म का अनुयायी बन गया। इसी से सिक्ख जाटों का फरीदकोट पर राज्य शुरु हुआ जो कि पीढ़ियों से हिन्दू जाति के सिद्धू या बराड़ गोत्री जाटों का शासन चला आ रहा था।

इस राजा हमीरसिंह की वंशपरम्परा में निम्नलिखित राजा इस फरीदकोट रियासत के शासक हुए। इन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया तथा अंग्रेज इनके रक्षक रहे –

  1. राजा मोहरसिंह
  2. चड़हतसिंह 1804 ई० में मर गया
  3. गुलाबसिंह
  4. अतरसिंह
  5. पहाड़सिंह
  6. वजीरसिंह 1857 ई० की क्रान्ति में अंग्रेजों का साथ दिया, 1874 ई० में मृत्यु
  7. विक्रमसिंह, 1874-1898 ई०
  8. बलबीर सिंह 1898 ई० में राजा बना
  9. ब्रजेन्द्रसिंह 1916 ई० में गद्दी पर बैठे, 1918 ई० में स्वर्गवास हुए
  10. हीरेन्द्रसिंह – आप राव सिद्ध की 30वीं पीढ़ी में हुए जो कि इस राज्य के अन्तिम महाराज थे। भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त होने पर आपकी इस रियासत को भारत सरकार के शासन में मिलाया गया।

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